पृष्ठ:रसकलस.djvu/६०९

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रसकलस ३६२ निर्वेद कवित्त- मेरी नारि मेरो पूत मेरो परिवार सारो मेरो गाँव मेरो गेह मेरो धन जन है। मेरो मीत मेरो तात मेरो हित मेरो नात मेरो मुख मेरो नैन मेरो यह तन है। 'हरिऔध' ऐसे नाना चावन को चेरो अहै मोह - भरे - भावन मैं रहत मगन है। छोरि छोरि हारे छोरे बंधन न छूटि पाये मोरि मोरि हारे मोरे मुरत न मन है ॥ १ ॥ सवैया- चाह नहीं सुर पादप की तर वाँ के तरून के जो रहि जैथे। प्यास पियूखहूँ. को न हिये 'हरिऔध' जो पूखन-जा लखि लेयै । काम - दुघाहु सों काम कहा वह गो - धन जो अपनो धन कैये। त्यागिये राज तिहूँ पुर को अज - पूजित जो व्रज की रज पैयै ।।२।। मुख जोहत जो नित मेरे रहे उनको अब बैन सुनातो नहीं। जिन सामुहें दीठ न कीनी कबौं उनको अब जोम जनातो नहीं। 'हरिऔध' कहा कहै औरन की सगहूँ लगतो नगिचातो नहीं। अब तो जग - जीवन तेरे बिना जग आपनो फोऊ दिखातो नहीं ॥३॥ आरस छोरि लहौं तुलसी - दल पारस पाइ पलौं न उमाहौं। गावत प्रभु के गुन - पावन पावत मोद पलास की छाँहौं। या जग में जकरे सॅकरे परौं भाग छुटे 'हरिऔध' सराही । सॉवरे राज ते काज कहा हमैं रावरे पायन की रज चाहौं ॥४॥ पाइ बिभौ कबहूँ गरबात कबौं हित पेट के आतुर धावै । मोद सों मत्त वनै कबहूँ अति चिंतित है कवहूँ अकुलावै । वे