पृष्ठ:रसकलस.djvu/६६

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3 स्वीकार्यः। अतः एवाष्ठौ नाट्य रसा इत्युपक्रम्य शान्तोऽपि नवमो रस इति मम्मट- भट्टा अप्युपसमहायुः। 'जो लोग नाटको मे शांत रस नहीं है, यह मानते है उन्हें भी किसी प्रकार की बाधा न होने के कारण एवं महाभारतादि ग्रंथो मे शांत रस ही प्रधान है, यह बात सब लोगों के अनुभव से सिद्ध होने के कारण उसे काव्यों में अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। इसी कारण मम्मटभट्ट ने भी 'अष्टौ नाट्य रसाः स्मृताः' इस तरह प्रारंभ करके 'शान्तोऽपि नवमो रस इस तरह लिखकर उपसंहार किया है।' -हिंदी रसगगाधर यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि शांत रस की कल्पना कैसे हुई ? इसका उत्तर स्वयं काव्यप्रकाशकार देते हैं। वे लिखते है 'निवेदस्थायि- भावोऽस्त शान्तोऽपि नवमो रमः' जिसका स्थायी भाव निर्वेद है नवॉ वहीं शांत रस है । रसगंगाधरकार निर्वेद की व्याख्या यो करते हैं- 'नित्यानित्यवस्तुविचारजन्मा विषयविरागाख्यो निवेदः, गृह कलहादिजस्तु व्यभिचारी। "जिसकी उत्पत्ति नित्य और अनित्य वस्तुओं के विचार से होती है, जिसका नाम विषयो से विरक्ति है, उसे निर्वेद कहते हैं, वही निर्वेद यदि गृहकलहादि जन्य हो तो व्यभिचारी होगा।" प्रदीपकार कहते हैं- 'शमोऽस्य स्थायी, निदादयत्तु व्यभिचारिणः स च दशमो निरीहावस्थायाम, आनन्दः स्वात्मविश्रामादिति ।' इमका ( शांत रस का) स्थायी भाव 'शम है, क्योकि निर्वेद की गणना व्यभिचारी भावो मे है । शम तृष्णा रहित अवस्था के उस अानद को कहते हैं, जिसमे प्रात्म-विश्राम-प्रसूत सुख की प्राप्ति होती है- उसका वर्णन महर्पि कृष्ण द्वैपायन ने यो किया है- 'पच्च कामसुस लोके यच दिव्यं महत्तुन्वम् । तृष्णादयः सुखश्चैते नाईतः पोडशी कलाम् ॥'