. अनुभूति मे बाधा न पडती हो । जिस पद्य के विभाव, अनुभाव, श्रादि अवाध रीति से हृदयंगम होते हैं, वह पद्य जिस प्रकार सहज बोधगम्य और हृदयग्राही होता है, वैसा वह पद्य नहीं, जिसमें उनके बोध में कोई वाधा आ खडी हो। इसीलिये इस प्रकार के व्यापार को सदोप माना गया है। नवला का मद-मंद मुस्काना और उसका 'नयन नचाते जाना' अवश्य अनुभाव हैं, किंतु नायक के विपय में स्पष्ट निर्देश न होने से यह विदित नहीं होता कि ये दोनों रति सबंधी कार्य हैं, अथवा साधारण विलास-मात्र । दूसरी बात यह कि 'अवलोकहु' के विपय मे यह स्पष्ट नहीं जात होता कि यह शब्द कौन किससे कहता है, इससे भी अनुभाव के स्पष्ट करने मे जटिलता उपस्थित हो जाती है। यदि यह किती सखी, सखा अथवा अन्य जन की उक्ति है, तो उनका उद्देश्य विलास अवलोकन कराना मात्र है, अथवा रति उत्पादन । कट-कल्पना द्वारा ही कोई वात निश्चित होगी, इसीलिये इस प्रकार की रचना को सदोप कहा गया है। चिंता की चेरी बनी वारि विमोचत नैन । कहा करौं विचलित बने चूर भयो चित चैन । जिस दशा का वर्णन इस पद्य मे हैं, शृगार रस में विरहिणी की भी ऐसी दशा हो सकती है और शोकग्रस्त होने पर किसी सतप्ता रमणी की भी यह करुणामयी दशा देखी जा सकती है, ऐसी अवस्था में यह निश्चित करना कठिन है कि यह किसी विरहिणी की उक्ति है, अथवा किसी शोकमयी माधारण रमणी की। अतएव इस पद्य का विभाव- निर्णय सहज नहीं । यह असहजता ही रस दोप है। नीचे के पॉच दोप प्रकरण सबधी हैं, समस्त सस्कृत के लक्षण-ग्रंथों मे उनका उल्लेख प्रकरण-द्वारा ही किया गया है। समस्त प्रकरण नाटकों में लिये गये हैं, अथवा काव्य-ग्रथो से। इधर हिंदी भाषा में जो दो-चार ग्रथ इस विषय के लिग्वे गये हैं, उनमें भी प्रकरणो के उदाहरण
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