६१ १ < -उपमा में असादृश्य अर्थात साधारण धर्म को अप्रसिद्धि और असभव अर्थान उपमान की अप्रसिद्धि हो- २-उपमान मे जाति या प्रमाण न्यूनता या अधिकता विद्यमान हो- ३-'अर्थातरन्यास' अलंकार मे यदि उत्प्रेक्षित अर्थ का समर्थन किया गया हो तो वहाँ 'अनुचितार्थ दोपहोगा । यथा- "विरचत काव्य कलाकरहि कला सकलन हेतु।" "चलित वारि धारा सरिस बरसत विसिख समूह ।" इन दोनो पद्यो मे प्रथम मे काव्य का उपमान कलाकर (चंद्रमा) को और दूसरे में विशिख समूह का उपमान ज्वलित वारि-धारा को बनाया है, दोना में अप्रसिद्ध दोप है, काव्य का उपमान चंद्रमा लोक में प्रसिद्ध नहीं है. इसी प्रकार वारि-धारा जलती नहीं होती, यह बात भी प्रसिद्धि के प्रतिकून्न है-अतएव दोनो मे अप्रसिद्धि दोप है, इसलिये उनमे अनुचितार्थत्व है । क्योकि उनमे प्रयोग का औचित्य नहीं है । 'साइसीक है समर में नृप चडाल समान' इम पद्य में राजा का उपमान चांडाल है जो अनुचित है-उसमे जातिगत 'हैं कपूर के खटमम चंद्रबिंब छवि देत' 'क्योकि कहाँ कर्पूर खंड और कहाँ चंद्रबिंब-इस पद्य में प्रमाणगत न्यूनता है- 'विलसित है हर के सरिस नीलकंट यह मोर' इस पद्य के उपमान मे जातिगत आधिक्य है, क्योकि कहीं तिबन्योनि मयूर और कहाँ महामहिम महेश्वरः इसलिये अनौचित्य की पराकाष्टा है- हैं तिय तेरे कुच युगळ काहू अदि समान । 'लउना तेरो भाल है चमक्त चंद्र समान।
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