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रसज्ञ-रञ्जन
 

चाहिए। ऐसी रसवती वाणी से परिप्लुत उत्तर यदि तुम देवताओ के सन्देश का देतीं, तो मेरे मुंह से सुनाया जाने पर, वह देवताओं के सारे सन्ताप को एक क्षण में दूर कर देता। तुम्हारे उत्तर की अपेक्षा में मुझे यहाँ पर जितना हो अधिक विलम्ब हो रहा है, रुष्ट हुआ रति-पति उतना ही अधिक देवताओं को अपने वाणों का निशाना बना रहा होगा। मेरा एक-एक क्षण यहाँ पर एक-एक कल्प के समान बीत रहा है। मुझे धिक्कार है। दूत का काम करना भी मुझे न आया। यह काम बड़ी ही जल्दी का था; परन्तु, हाय! इसमें व्यर्थ विलम्ब हो रहा है।

इतना कह कर राजा नल के चुप हो जाने पर परम विदुषी दमयन्ती ने मन ही मन उन देवताओं की मूर्खता पर अफसोस किया जिन्होने ऐसे सुन्दर पुरुष को स्त्री के पास दूत बना कर भेजा। उसने अपने मन में कहा कि जलों [ड़ो] के अधिपति, प्रेतो के राजा [यम], मरुत्वान् [वात-ग्रस्त], इन्द्र और उर्ध्वमुख अग्नि से और क्या उम्मेद की जा सकती है? जैसे वे स्वयं हैं वैसा ही दूत भी उनको मिला है। यह कह कर, और कुछ मुसकरा कर, नल को उत्तर देने के लिए वह प्रस्तुत हुई। वह बोली—

आपके साथ व्यर्थ परिहास करने बैठना मेरे लिए ढिठाई है। बार-बार निषेध-वाक्यों का प्रयोग करते जाना वाणी की विडम्बना है। और, आपकी बात का उत्तर न देना आपधा अनादर करना है। इससे मुझे विवश होकर, देवताओ के सन्देश का उत्तर देना पड़ता है। सुनिए—

मैं मनुष्य-जन्म के कलंक से कलंकित हूँ। अतएव बड़ा ही आश्चर्य है जो देवताओ के मुँह से मेरे विषय में ऐसी बात निकली। हाँ मैं उनकी भक्त हूँ। इसीसे सम्भव है, दिगीश्वरों ने मुझ पर कृपा की हो। क्योंकि भक्त-वात्सल्य के कारण स्वामी