पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०८
रसज्ञ-रञ्जन
 

फिर ऐसा असंगत प्रस्ताव क्यों? ये तो सदाचार-समुद्र के कर्णधार समझे जाते हैं। अतएव, मुझे पर-स्त्री जान कर भी किस तरह ये मेरे पाने की इच्छा करते हैं? इनके मनमें तो इस प्रकार का विकार उत्पन्न ही न होना चाहिए। यह इनका केवल अनुग्रह है, जो मुझ मानुषी की प्राप्ति के ये इच्छुक है। परन्तु, यदि इन्हे मुझ पर अनुग्रह ही करना है, तो मुझे नल-प्रदान रूपी भिक्षा देकर ही ये मुझ पर अपना अनुग्रह प्रकट करें। ये ईश्वर हैं, इनमें सब कुछ दे डालने की सामर्थ्य है। अतएव मुझे यह भिक्षा देना इनके लिए कोई बड़ी बात नहीं। सुन लीजिए, मेरी सखी ने तो दृढतापूर्वक यह प्रतिज्ञा तक कर डाली है कि यदि नल ने मेरा पाणि-ग्रहण न किया तो मैं आग मे जल कर मर जाऊँगी, या फाँसी लगा कर प्राण छोड़ दूँगी, या जल मे डूब कर जान दे दूँगी। मैं जीती रहने की नहीं। नल की अप्राप्ति में, मैं अपने शरीर को अपना शत्रु समझ कर उसके सर्वनाश द्वारा उसके शत्रु-भाव की समाप्ति किए बिना न रहूंगी। इस प्रतिज्ञा को आप अच्छी तरह याद रखिए। आत्म-हत्या करना बुरा है, यह वह जानती है। परन्तु सती-धर्म की यदि रक्षा न हो सके तो, आपत्ति काल में निषिद्ध आचरण करना भी अनुचित नहीं। राजमार्ग के कर्दम-मय हो जाने पर क्या समझदार आदमी अन्य मार्ग से नहीं आते-जाते? मैं स्त्री हूँ। दिक्पाल पुरुष हैं और वाग्मी भी हैं। इससे मैं उनकी बातों का समुचित उत्तर देने में समर्थ नहीं। आप मुझ पर कृपा करें तो बात बन जाय। मैंने सूत्ररूप में जो कुछ आप से निवेदन किया है उस पर एक भाष्य की रचना कर के तब आप उसे देवताओं को सुनाइएगा। देखिए, काट-छाँट करके कहीं उसे आप और भी छोटा न कर दीजिएगा।

इस पर नल की विकलता की बातें सुनिए—

ये त्रिलोक वन्दनीय दिक‍्पाल तो तुम पर इतना प्रेम प्रकट