पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११०
रसज्ञ-रंजन
 


नल के न मिलने पर मर जाने का जो तुमने प्रण किया है; वह भी तुम्हारी मूर्खता ही का सूचक है। यदि तुम फाँसी लगा कर मर जाओगी तो प्राणोत्क्रमण के अनन्तर तुम्हें अवश्य ही कुछ समय तक, अन्तरिक्ष में भ्रमण करना पड़ेगा और अन्तरिक्ष में रहने वाले जीव समुदाय का स्वामी, जानती हो, कौन है? वही इन्द्र उनका स्वामी है। वह तुम्हें वहाँ पाकर क्यों छोड़ने लगा। अतएव, इस दशा में तुम्हे अवश्य ही उसकी होना पड़ेगा। यदि तुम आग में जल कर शरीर त्याग करोगी तो अग्नि पर मानो तुम्हारी बड़ी ही दया होगी। चिरकाल से अनेकानेक प्रार्थनाएँ करने पर भी जो तुम इस समय उसके लिए दुर्लभ हो रही हो वही तुम स्वयं ही उसे प्राप्त हो जाओगी। बिना नल के यदि तुम जल में डूब मरोगी तो फिर वरुण के सौभाग्य का कहना ही क्या है। तुम्हारे बहिर्गत प्राणों को हृदय में धारण करके वह अवश्य ही कृतकृत्य हो जायगा। इन परिणामों के बचने के इरादे से सम्भव है, तुम और किसी उपाय का अवलम्बन करो। परन्तु वैसा करने से भी तुम्हारा परित्राण नहीं। क्योंकि मृत्यु के उपरान्त तुम्हें निःसंदेह ही धर्मराज का अतिथि होना पड़ेगा। अतएव तुम्हारे सदृश प्रियतम अतिथि को स्वयंमेव अपने घर आया पाकर वह अवश्य ही अपना परम सौभाग्य समझेगा।

तुम्हारी बातें सुन कर मुझे सन्देह हो रहा है कि इन्द्रादि देवताओं के विषय में जो तुमने निषेध-सूचक वाक्य कहे हैं वे कहीं स्वीकार सूचक तो नहीं। अपनी वक्रोक्तियो से कहीं तुम मेरे अभिलषित अर्थ ही की पुष्टि तो नहीं कर रही? तुम्हारे वचनो में वक्रता का होना सर्वथा स्वाभाविक भी है। क्योंकि विदग्ध-बालाओं के मुख से यदि व्यञ्जक वृत्ति से विभूषित वक्र वचन न निकलेंगे तो निकलेंगे किसके मुख से? चतुरा स्त्रियों का मुख ही तो ध्वनि-प्रधान उक्तियो का आकार है।