तुमने मेरे और देवताओं के सम्बन्ध में जो बातें कहीं उन्होंने मेरे लिए तेज़ नोक वाली सुइयों का काम किया—मेरे पापी कानों को उन्होंने छेद-सा डाला। अथवा यह कहना चाहिए कि उन्होंने मेरे प्राण ही निकाल लिये। कृतान्त के तो तुम दूत ही ठहरे। तुम से और क्या आशा की जा सकती है? तुमने मेरे विषय में जो मिथ्या सम्भावनाएँ की हैं, उनके अक्षर मेरे कानों में असह्य वेदना उत्पन्न कर रहे हैं। इस कारण मैं, इस समय और कुछ कहने में समर्थ नहीं।
इसके अनन्तर विदर्भनन्दिनी दमयन्ती की प्रेरणा से उसकी सहेली नल के सम्मुख हुई। वह बोली—
मेरी सखी इस समय अपनी एक जिह्वा से लज्जारूपी देवी की आराधना कर रही है। अतएव उसे मौनव्रत धारण करना पड़ा है। उसकी दूसरी जिह्वा आप मुझे समझे और मुझ से मेरी सखी का उत्तर सुने। जो कुछ मैं कहती हूं उसे आप मेरी सखी ही के मुख से निकले हुए वचन समझे।
कल ही स्वयंवर होने वाला है। उसमें निषाधनाथ नल के कण्ठ में वरमाला पहिनाने का मैंने निश्चय कर लिया है। आज का दिन मेरे इस काम में विघ्न डाल रहा है। क्योंकि मेरे प्राण कल के पहिले ही निकल जाना चाहते हैं। उनके लिए एक दिन का विलम्ब भी दुःसह हो रहा है। इसलिए आज आप यही ठहर जाइए तो मुझ पर बड़ी दया हो। आपका दर्शन कर के मैं इस एक दिन को किसी तरह बिताने की चेष्टा करूँगी। कारण यह है कि उस हंस ने अपने नखो से मेरे प्राणाधार का जो चित्र बनाया था वह तुमसे बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इसमें तुम्हारा भी फायदा है। तुम्हारी आँखे तुम्हारे मुख की शोभा देखने में असमर्थ हैं। ब्रह्मा ने उन्हें उस शोभा-विलोकन से वंचित रक्खा है। अपना मुँह अपनी ही आँखों से नहीं देख पड़ता। यदि आप