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रसज्ञ-रंजन
 

मैं भोग रही हूँ—उसकी खबर किस तरह मैं तुम तक पहुँचाऊँ। ब्रह्मा ने उस पक्षी को भी, न मालूम, कहाँ छिपा दिया। एक-एक सरोवर उसके लिए ढूँढ़ डाला गया। पर, कहीं पता न चला। यदि वह मिल जाता, तो मेरी इस दुर्गति का समाचार तो तुम्हें ज्ञात हो जाता। मेरा मन एकमात्र तुम्हारे ही चरण-कमलों में लीन है। क्या इस बात को तुम नहीं जानते? और यदि जानते हो तो तुम्हें मुझ पर दया क्या नहीं आती? दयाधनो को इतनी निठुराई शोभा नहीं देती। अथवा इसमे तुम्हारा कुछ भी अपराध नहीं। दैव जो चाहे करें। वह ज्ञानियों को भी विचारान्ध कर देता है। खैर। मेरी मृत्यु अब अनिवार्य है। मेरा प्राणान्त हो जाने पर कभी न कभी तो तुम्हारे कान में यह भनक अवश्य ही पड़ेगी कि दमयन्ती ने मेरे लिए प्राण दे दिये। अच्छा, नाथ। इस समय मुझ पर दया नहीं आई तो न सही। मेरा मृत्यु समाचार पाने पर ही मुझ पर कुछ दया दिखाने का अनुग्रह करना। मैंने सुना है कि तुम बड़े दानी हो—तुम याचकों के कल्पद्रुम हो। इसमे मैं भी तुमसे एक छोटी-सी याचना करती हूँ। हे प्राणाधिक! मेरा हृदय अब विदीर्ण होने ही पर है। उसके दो टुकड़े हो जाने पर जिस रास्ते मेरे प्राण निकलेगे उसी रास्ते, उन्ही के साथ, कहीं तुम भी न निकल खड़े हो जाना।

पत्थर को भी पिघलाने वाला दमयन्ती का ऐसा विलाप सुन कर नल को आत्म-विस्मृति हो गई। उन्माद-ग्रस्त मनुष्य की जो दशा होती है वही दशा उसकी भी हो गई। इस दशा को प्राप्त होने पर वह अपने दूत-भाव को बिलकुल ही भूल गया। अज्ञानावस्था में वह इस तरह की प्रलाप-पूर्ण बाते कहने लगा—

प्रिये! तू किसके लिए इतना विलाप कर रही है? अपने मुख को अश्रुधारा से क्यों वृथा धो रही है? यह नल तो तेरे सामने ही, तुझे प्रणाम करता हुआ, खड़ा है। तिर्यक नेत्रों के