प्रशस्त हो रहा था उसमें मैंने काँटे बखेर दिये। ईश्वर तू मेरा साक्षी है, जान बूझ कर मैंने ऐसा नहीं किया। हाय मेरी छाती लज्जा से फट क्यों नही जाती? यदि फट जाती तो देवताओं को मेरी हृदय-शुद्धि का ज्ञान तो हो जाता। खैर, देवता तो सर्वज्ञ हैं। सच क्या है वह जान लेंगे। पर सांसारिक जनो के मुँह पर कौन हाथ रखता फिरेगा? लोकनिन्दा से मेरी किसी तरह रक्षा नहीं।
बड़ी देर तक नल को इस तरह विलाप करते और सिर धुनते देख उस दिव्य हंस को उस पर दया आई। वह अचानक वहां आकर उपस्थित हो गया। उसने नल को समझा-बुझा कर शान्त कर दिया। उसने कहा—
बस, बहुत हो चुका। और अधिक दयमन्ती को पीड़ित न कीजिए। निर्दयता छोड़िए। इसको स्वीकार कीजिए। अधिक निराश करने से यह अवश्य ही अपनी जान दे देगी? आपने अपने आपको जान-बूझ कर प्रकाशित नहीं किया। इसमें आपका कोई अपराध नहीं। देवता आप पर कदापि अप्रसन्न न होगे। वे आपके हृदय की शुद्धता को अच्छी तरह जानते हैं। यह कह कर वह हंस जब वहां से उड़ गया तब उन चारो दिक्पाल-देवताओं को प्रणाम करके नल दयमन्ती से इस प्रकार मधुर वाणी बोला—
देवताओं में अनुराग उत्पन्न करने की व्यर्थ चेष्टा करके मैंने तुम्हारी बहुत कदर्थना की। परन्तु इसमें मेरा कुछ दोष नहीं। मैं सर्वथा निरपराध हूं। मैंने निष्कपट भाव से देवताओं की दूतता की है यही मेरा धर्म था। धर्म-पथ से डिगना में मृत्यु से भी भयंकर समझता हूं। अब वे चाहे मुझ पर इस कार्य के उपलक्ष में दया दिखावें, चाहें मुझे अपराधी समझ कर दण्ड दें। मुझे कुछ नहीं कहना। देवता तो तुम पर हृदय से अनुरक्त हैं, पर