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पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/१७

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१—कवि-कर्त्तव्य
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गद्य साहित्य की सेवा करते हैं, उनके पद्य में ब्रज की भाषा का आधिपत्य बहुत दिनों तक नहीं रह सकता।

अर्थ

अर्थ-सौरस्य ही कविता का प्राण है। जिस पद्य में अर्थ का चमत्कार नहीं, वह कविता ही नहीं। कवि जिस विषय का वर्णन करें उस विषय से उसका तादात्म्य हो जाना चाहिए। ऐसा न होने से अर्थ सौरस्य नहीं आ सकता। विलाप-वर्णन करने में कवि के मन में यह भावना होनी चाहिए कि वह स्वयं विलाप कर रहा है और वर्णित दुःख का स्वयं अनुभव कर रहा है। प्राकृतिक वर्णन लिखने के समय उसके अन्तःकरण में यह दृढ़ संस्कार होना चाहिए कि वर्ण्यमान नदी, पर्वत अथवा वन के सम्मुख वह स्वयं उपस्थित होकर उनकी शोभा देख रहा है। जब कवि की आत्मा का वर्ण्य-विषयों से इस प्रकार निकट सम्बन्ध हो जाता है, तभी उसका किया हुआ वर्णन यथार्थ होता है और तभी उसकी कविता पढ़ कर पढ़ने वालों के हृदय पर तद्वत भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। कविता करने में, हमारी समझ में अलङ्कारों को वलात् लाने का प्रयत्न न करना चाहिए। विषय वर्णन के झोके में जो कुछ मुख से निकले उसे ही रहने देना चाहिए। वलात् किसी अर्थ के लाने की चेष्टा करने की अपेक्षा प्रकृति भाव से जो कुछ आ जाय उसे ही पद्य-बद्ध कर देना। अधिक सरस और आह्लादकारक होता है। अपने मनोनीत अर्थ को इस प्रकार व्यक्त करना चाहिए कि पद्य पढ़ते ही पढ़ने वाले उस तत्क्षण हृदयङ्गम कर सकें, क्लिष्ट कल्पना अथवा सोच-विचार करने की आवश्यकता न पड़े।

बहुत से शब्द ऐसे है जो सामान्य रीति से सब एक ही अर्थ के व्यञ्जक है, परन्तु विशेष ध्यानपूर्वक देखने अथवा धातु के