पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/८७

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७-हंस का नीर-क्षीर विवेक
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सुराङ्गना कर्षति खण्डितायात सूत्रं मृणालादिव राजहंसी।

अर्थात् यह सुरांगना ( मेरा मन शरीर से उसी तरह) खीच रही है, जिस तरह राजहंसी मृणाल से सूत्र खींचता है। इन अवतरणों से प्रकट है कि हंस चाहे मोती चुगते और दूध पीते ही क्यों न हों; पर वे पानी भी पीते है और जलरुह पौधो के फल फूल, मूल, नाल, मृणाल और विसतन्तु भी खाते है। हंसो को जलपूर्ण जलाशयों में रहना अधिक पसन्द है। वहाँ उनके साने की सामग्री, विशेष करके मृणालदंड, उनके भीतर के विस-तन्तु और उनसे निकलने वाला रस है। कमल नाल को तोडने से उसके भीतर से सफेद-सफेद सूत-सी एक चीज निकलती है उसी को बिस-तन्तु कहते हैं। सुनते है, उसे हंस बहुत खाते हैं मृणाल-दंड की गाँठो से एक तरह का रस भी निकलता है, वह पतले दूध की तरह सफेद होता है। उसमे कुछ मीठापन भी होता है। उस रस का भी नाम क्षीर है। पेडो से निकलने वाले पानी के सदृश्य सफेद रङ्ग के प्राय. सभी प्रवाही पदार्थों का नाम क्षीर है। यहाँ तक कि गूलर, बरगद, थूहड़ और मदार तक से निकलने वाली सफेद चीज़ को हम लोग दूध ही कहते है। मृणाल-दंड पानी में रहते हैं। उन्हीं के भीतर से क्षीर-तुल्य सफेद रस निकलता है। उसी रस को हंस पीते या खाते है। अतएव, इस तरह, पानी के भीतर से निकाल कर हंसो का दूध पीना जरूर सिद्ध है। अनुमान होता है कि आरम्भ मे इसी प्रकार के नीर-क्षीर के पृथकाव से पंडितों का मतलब रहा होगा। धीरे-धीरे लोग वह बात भूल गये। उनकी यह समझ हो गई कि मामूली जल-मिश्रित दूध से हंस जल को पृथक् कर देते हैं और जल को छोड़ कर दूध भरी जाते है।