पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/११५

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पंचम प्रभाव ११७ यथा- सूचना-(१) 'दीह दीपमाला' से बड़ी दीपावली। छोटी दीवाली 'डिठवन' ( देवोत्थानी हरिप्रबोधनी ) को होती है । 'सूने सुनियत' से सन्नाटा और एकांत सूचित करना चाहता है । (२) हस्तलिखित पूर्ण प्रति में वह छंद नहीं है। (दोहा) (१५८) उढ़ा पुनि यहि भाँति करि, बहु बिधि हितनि जनाइ। आपुन ही तें लाज तजि, पियहि मिल अकुलाइ।१६॥ -(कबित्त) (१५६) पंथ न थकत पल मनोरथ रथनि के, केसौदास जगमग जैसें गाए गीत मैं। पवन बिचार चक्र चक्रमन चित ढि, भूतल अकास भ्रमै घाम जल सीत मैं । कौ लौं राखौं थिर बपु बापी कूप सर सम, हरि बिनु कीने बहु बासर बितीत मैं । ज्ञान-गिरि फोरि तोरि लाज-तरु जाइ मिलौं, आपु ही तें आपगा ज्यौं आपुनिधि प्रीतमैं ।२०। शब्दार्थ-जैसें गाए गीत मैं = जैसे वे रथ गीतों में गाए गए हैं (अर्थात् अत्यंत तीब्र )। पवन वायु, श्वास । चक्र = पहिया। चक्रमन-चंक्रमण, घूमना, चलना । वपु = शरीर | बापी - बावड़ी । सर = तालाब । आपगा-3 नदी । आपुनिधि = ससुद्र । प्रीतमैं = प्रिय को। शब्दार्थ-( नायिका की उक्ति ) मनोरथ के रथ का मार्ग क्षण भर भी रुकता नहीं है । वह उसी प्रकार गतिशील रहता है, जगमगाता मार्ग पर चलता है, जैसा गीतों में गाया गया है। श्वास और विचार इस रथ के चक्र (पहिये) हैं । इस रथ पर चढ़कर घूमने के लिए निकलता है चित्त । वह इस पर बैठा भूतल से आकाश तक धूप, वर्षा और जाड़े में घूमता ही रहता है। शरीररूपी जल को बावड़ी, कुएँ और तालाब के जल की भांति कब तक स्थिर रखू । हरि के वियोग में बहुत दिन मैंने बिताए अब तो ज्ञान के पर्वत कों फोड़ कर ( मार्ग निकालकर ) और लज्जा रूपी वृक्ष को तोड़कर स्वयम् ही यह देहरूपी नदी प्रियतम समुद्र से जा मिले ( यह इच्छा होती है )। अलंकार-रूपक । अन्यच्च, यथा -(सवैया) (१६०) जाति भई सँग जाति लै कीरति, केसव है कुल सों हित खूटयो। गर्व गयो गुन जोबन रूप को पुन्य सु तौ फल ही पल फूटथो। १६-हितनि-हितान्ह । पियहि-पतिहि । २०-थकत-थकित । रथनि के - रथन के, रथ नाके । चक्रमन-चक्रमान । फोरि-कोरि ।