पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचम प्रभाव १२१ शब्दार्थ-बूझत पहेली-जाल = पहेलियाँ बूझते हुए । घोरि उठे = गर्जेन करने लगे। भावार्थ-(सखी की उक्ति सखी से) हँसते और खेल खेलते तथा कहानी कहते एवम् पहेलियों को बूझते चंद्रमा की ज्योति मंद पड़ गई (चंद्रमा डूबने लगा') । नींद लग जाने के कारण सब गोपियां और गोप भी धीरे धीरे अपने अपने घर चले गए। उधर आकाश में चारों ओर घने बादल गरजने लगे। अतः श्रीकृष्ण भी उठकर चलने लगे। उस अवसर पर धाय बोली कि पाप आधी रात को ऐसे अंधकार में कहाँ जाएँगे? प्यारे लाल, आप राधिका की आधी शैय्या में लेट जाइएन । सूने घर को मिलन, यथा-( कबित्त) (१६८) देखत ही चित्र सूनी चित्रसाला बाला आज, रूप की सी माला राधा रूपकु सुहाए री। नूपुर के सुरनि के अनुरूप ता. लेति पगतल ताल देति अति मन भाए री। ऐसे में दिखाई दीनी औचक कुवर कान्ह, जैसे भए गात तैसे जात न बताए री । केसौदास कहे परै अलज सलज से न जलज से लोचन जलद से है आए री २६॥ शब्दार्थ-ही-थी । बाला=नायिका ( राधिका)। रूप = छबि । रूपकु = सात मात्राओं का एक ताल विशेष । नूपुर-पायजेब । अनुरूप अनुकूल । औचक अचानक । अलज-लज्जारहित ( एकांत की निर्भयता के के कारण ) । सलज-लज्जा से युक्त । भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) आज वह बाला ( राधा) सूनी चित्रशाला में चित्र देख रही थी। (चित्र देखते देखते ) उस छवि की माला राधिका को रूपक ताल ( देने का मन हुआ और वह ताल ) देने लगी। नूपुर की ध्वनि के ही अनुकूल वह पालाप भी लेती थी और पदतल से अत्यंत मनभाए ताल भी दे रही थी। इसी समय अचानक श्रीकृष्ण के द्वारा वह देख ली गई। (और उसने उनके द्वारा अपना देखा जाना जान लिया ) उस समय उसके शरीर की जैसी दशा हुई वह बतलाई नहीं जा सकती। उस समय के उसके नेत्र न तो अलज्ज ही कहे जा सकते हैं न सलज्ज ही (अपने आप नाचते समय नेत्रों में लज्जा का भाव नहीं था, पर श्रीकृष्ण के द्वारा इस स्थिति के देख लिए जाने से उनमें लज्जा का संचार हुमा । अभी न तो पहले की स्थिति समाप्त ही हुई है और न श्रीकृष्ण के मिलन के कारण उत्पन्न २६-१३ अनु । भए-हैं ए । से न--ऐसे ।