पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२४ रसिकप्रिया करि अंजन रंजित चारु कपोल करी जुत जावक नैननिकाई। सुनि आवत श्रीब्रजभूषन भूषन भूषतहीं उठि देखन पाई ॥३१॥ शब्दार्थ-कटि के तट = कमर में। उरमाई = लटका ली. डाल ली, पहन ली। कल किंकिनी = सुदर करधनी लेकर गले में पहन ली । कर%D हाथ में । नूपुर-पायजेब । पग = पैर में। पौंची-पहुंची, कलाई पर का गहना । रची = पहन ली । अंगिया-चोली। अंगिया० %= अँगिया पर आंचल डालने की सुध भूल गई । रंजित = युक्त । करी० = नेत्रों का सौंदर्य यावक से युक्त किया, नेत्रों का श्रृंगार महावर से कर लिया। जावक = महावर । निकाई = सुंदरता, शृंगार । ब्रजभूषन = श्रीकृष्णजी । भूषन०, भूषण सजाते समय ही ( भूषण पहनते पहनते ही ) उठ देखने दौड़ पड़ी और हड़बड़ी में यहाँ का वहाँ पहन लिया। अलंकार-प्रसंगति। श्रीकृष्णजू को विभ्रम हाव, यथा-( सवैया ) (२१२) नँदनंदन खेलत हे बने गात बनी छबि चंदन के जल की। बृषभानुसुताहि बिलाकत ही रुचि चित्त में बिभ्रम की झलकी । गिरि जात न जानत पाननि खात बिरी करि पंकज के दल की। बिहँसी राजगोपसुता हरि लोचन मूंदी सुरोचि हगंचन को ।३२॥ शब्दार्थ-हे थे। बने गात = शरीर सजाए। रुचि = छटा । रुचि चित्त में० = चित्त में विभ्रम का रंग पा गया । सुरोचि-सुदर छटा । भावार्थ-( सखी की उक्ति सखीं से ) हे सखी, श्रीकृष्ण शरीर सजाए खेल खेल रहे थे। उनके शरीर में चंदन-लेप की शोभा अच्छी बनी थी। ( एकाएक उन्हें श्री राधिकाजी देख पड़ी) उन्हें देखते ही उनके चित्त में विभ्रम का ऐसा रंग चढ़ा कि उन्हें पता ही न चला कि उनके हाथ से पान (तांबूल) छ टकर कब गिर गए । तब वे हाथ में लिए हुए कमल के पत्तों का ही बीड़ा बनाकर खाने लगे। ( यह देखकर ) समस्त गोपियाँ हँस पड़ी। ( उनका हँसना देखकर ) श्रीकृष्ण ने अपने गंचलों की छटा को नेत्रों में बंद कर लिया । अर्थात् श्रीकृष्ण को लज्जा लगी जिससे उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए, नेत्रों के मूद लेने से उनके गंचलों की वह छटा नहीं रह गई। प्रथ विहृत हाव-लक्षरण-(दोहा) (२१३) बोलनि के समय बिर्षे, बोलन देइ न लाज । बिहुत हाव तासों कहैं, केसव कबि कबिराज ॥३३॥ ३१-रची बनी, बिना । उर सों-उर में | बिसराई-बिरमाई। रंजित- मंजित । भूषन०- राधिका भूषित भूषन हो उठि बाई, भूषित ह अति आतुर देख न पाई। ३२-बने०-हैं बन तात, हैं बनगात। सुताहि-कुमारि । सुरोचि-सरोज ।