। ( १४ ) अतः इन्होंने उन्हें स्वकीया हो घोषित किया- श्रीमाननि के भौन में भोग्य भामिनी प्रौर। तिनहूँ को सुकियाहि में गर्ने सुकबि-सिरमौर ।।-शृंगारनिर्णय । जातिविलास में जिन्हें आलंबन के रूप में रखा गया उनमें से अधिकतर को उद्दीपन के अंतर्गत दूती के रूप में दास ने जो उपस्थित किया वह पारंपरिक प्रवाह के कारण। केशवदास ने इनमें से अधिकतर को सखीरूप में रखा है, वह भी रुद्रभट्ट के शृंगारतिलक के ही आधार पर * | हिंदी में अधिकांश संस्कृत का ही है, नवीन उद्भावना के कण उसमें नहीं के समान हैं । परकीया के उद्बुद्धा और उद्बोधिता वस्तुतः भेद नहीं हैं, उनकी स्थिति का कथन मात्र है। उसमें अवैज्ञानिकता नहीं है जैसा कहा जाता है। वह भी पारंपरिक कथन है । परकीया के मिलने के प्रयत्न की त्रिधा स्थिति हो सकती है–नायिका की ओर से प्रयत्न, नायक की ओर से प्रयत्न, दोनो की ओर से प्रयत्न । इनमें से उभयात्मक स्थिति का उल्लेख नहीं है। नायिका की ओर से प्रयत्न होने पर वह उद्बुधा है, नायक की ओर से प्रयत्न होने पर वह उद्बोधिता है। 'शृंगारतिलक' में भी इस स्थिति का उल्लेख है- विज्ञातनायिकाचित्ता सखी वदति नायकम् । नायको वा सखों तस्याः प्रेमाभिव्यक्तये यथा ।। दोनों स्थितियों के दो उदाहरण भी वहाँ दिए गए हैं । यह कहना भ्रांति- शून्य नहीं कि उद्बोधिता तो अनूढ़ा ही है। ऊढ़ा और अनूढ़ा दोनों ही उद्- बोधिता हो सकती हैं। कैसो अविचारित रमणीय उक्ति है-अनूढ़ा को न स्वकीया में ही रखा जा सकता है और न परकीया में। जब तक अनूढ़ा है तब तक वह परकीया ही रहेगी और जब प्रेमी से ही उसका विवाह हो जायगा तब वह स्वकीया होगी। स्थितिभेद से स्वरूपभेद होगा । संस्कृत में कार्यभेद से नायिकाओं के आठ रूप माने गए हैं, पर हिंदी में बहुत पहले से 'अष्टनायिका' के स्थान पर 'दशनायिका' का निरूपण होता आया है। इस पाठ और दस में कोई बड़ा अंतर नहीं है। सात भेद तो उभयनिष्ठ हैं । केवल प्रोषितभर्तृका के ही तीन-चार भेद और कर डाले गए हैं, अथवा यों कहिए कि नायक के प्रवास-प्रसंग को लेकर इन भेदों की कल्पना कर ली गई है-प्रोषितपतिका, प्रवत्सत्पतिका, प्रवत्स्यत्पतिका और आगतपतिका । प्रवत्सत्पतिका को किसी ने छोड़ भी दिया है, जैसे पद्माकर
- कारुसी नटी धात्री प्रातिवेश्या च शिल्पिनी ।
बाला प्रवजिना चेति स्त्रीणां ज्ञेयः सखीजनः ।।