पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१६०

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अष्टम प्रभाव १६३ ता दिन तें जग की जुवतीनि की लागत केसव बात अनैसी । चाहि फिरथो चित चक्र चहूँ न कहूँ दुति देखियै वा मुख कैसी ।। शब्दार्थ-बृषभानसुता= राधिका । सजनी = सखी। जननी = माता । बैसी-बैठी थी। चितयो = ( जाते हुए श्रीकृष्ण को राधिका ने ) देखा। रीति = भांति । अनैसी-बुरी, भद्दी। चाहि फिरयो = देखकर चित्त लौट प्राया। चक्र दिशा, पोर । चहूँ = चारो। श्रीकृष्णजू को प्रकाश पूर्वानुराग, यथा=( सवैया ) (२८८)माँ ति भली बृषभानलली जब तें अँखियाँ अँखियानि सों जोरी। भौंह चढ़ाइ कछू डरपाइ बुलाइ लई हँसि कै बस भोरी । केसव काहू त्यौं ता दिन तें रुचि के न बिलोकति केतौ निहोरी। लीलत है सब ही के सिँगार अँगारनि ज्यों बिन चंद चकोरी ।। शब्दार्थ-भाँति भली = भली भांति, अच्छे प्रकार । लली = पुत्री, लाड़िली । डरपाइ = डराकर, धमकाकर । बस के = वश में करके । भोरी: इन भोली भाली आँखों को । काहूँ त्यौं = किसी की ओर । रुचि के = चाव से । केतौ = ( न जाने ) कितना अधिक । निहोरी=( मैंने इन्हें ) मनाया। लीलत है = खा जाती है। सब ही के = सखा-सखी, मित्रों के द्वारा किए जाने वाले सजावट के प्रयत्न । अथवा ही = हृदय । सिँगार = ( शृंगार ) सजावट, 1 प्रफुल्लता, उमंग। भावार्थ-(नायक की उक्ति सखी से) जब से वृषभानु को पुत्री (राधिका) ने मेरी इन आँखों से अपनी आँखें भली भांति मिलाई हैं और इन भोलीभाली बेचारियों को भौंहें चढ़ाकर, कुछ डरा धमकाकर, हँसकर और वश में करके अपने पास बुलाया तभी ( उस दिन ) से ये किसी की अोर रुचिपूर्वक देखती ही नहीं । मैंने न जाने कितना मनाया ( पर व्यर्थ)। जैसे बिना चंद्रमा के चकोरी अंगारे लीलने लगती है वैसे ही ( राधिका के मुखचंद्र के बिना) ये भी मेरे हृदय की सारी उमंगें खाए जा रही हैं ( मेरे हृदय में प्रफुल्लता रह ही नहीं गई है।) अथ दशदशा-वर्णन- ( दोहा ) (२८९) अविलोकनि आलाप तें मिलिबे कौं अकुलाहिं। होत दसा दस बिनु मिले केसव क्यों कहि जाहिं ।। दशदशा-नामकथन-(दोहा ) (२६०) अभिलाष सुचिंता गुनकथन स्मृति उद्वेग प्रलाप । उन्माद ब्याधि जड़ता भए होत मरन पुनि श्राप ।।। -संग-ढिग । जुवतीनि-बतियानि । को लाल-लगाधर वात-भौति । चाहि-चाहें । ७-काहूँ त्यों-क्यों हूँ सु ! बिलोकति-निहारति ।