पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१७५

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रसिकप्रिया से गूंथकर त्रिवेणी (केश = यमुना, मोती% गंगा तथा लाल तागा%3 - सरस्वती) मी बनाई है जिसमें मेरे मनोरथ मुनियों की भांति स्नान करते हैं, जिसके नेत्र प्रेम में उलझे हए और ( किसी प्रिय को ) देखने के लिए हठ करते हुए जान पड़ते हैं, जिसकी भौहें किंचित् तनी हुई हैं और कुच झांकते हुए से ( उठे हुए ) हैं. नेत्र-कमलों पर पैर रखती हुई ( लक्ष्मी सी ) यह तेरे यहां जो आई है कौन है और उसके आने का क्या कारण है । अथ उन्माद-लक्षण-(दोहा) (३२१) तरकि उठे पुनि उठि चलै, चितै रहै मुख देखि । सो उन्माद जनावहीं, रोवै हँसै बिसेषि ।४० शब्दार्थ-तरकि = सोच-विचार करके । चित० = मुख देखकर देखता ही रह जाए । जनावहीं - बताते हैं, कहते हैं । बिसेषि - विशेष रूप से । श्रीराधिकाजू प्रच्छन्न उन्माद, यथा-( सवैया) (३२२) केसव सुधि बुधि हरित सु तुम बिन विथा अगाध राधिकहि बाढ़ी। छूटी लट लटकति कटितट लौ चितवति नीठि नीठि करि ठादी। तरकति तकि तोरति तन तलफति अति अपार उपचारनि डाढ़ी। सकसकाति लै साँस अचेत सुचेतहु प्रेम-प्रत गति गाढ़ी।४१॥ शब्दार्थ-सुधि बुधि = होश हवास । हरित = हर ली गई । बिथा = (सं० व्यथा) कष्ट, पीड़ा । अगाध = गहरी अत्यधिक । सुधि बुधि० आपके वियोग में राधिका की ऐसी गहरी व्यथा बढ़ी कि ( कुछ कहा नहीं जा सकता ) उसकी सारी सुधबुध खो गई है। नीठि%= कठिनता से। ठाढ़ी= खड़ी । छटी. • % उसकी छटी हुई केशों की लट कमर तक लटक रही है । बड़ी कठिनाई से तो वह खड़ी रह पाती है और कठिनाई से ही वह देखती भी रह सकती है । तरकति=सोच-विचार करती है। तोरति तन = शरीर तोड़ रही है, शरीर ऐंठ रही है। उपचार = औषध का प्रयोग । डाढ़ी = जली हुई । तरकति० =किसी की ओर देखकर न जाने वह किस सोच- विचार में पड़ जाती है । वह अपना शरीर तोड़ने लगती है। वह विरहताप के लिए किए गए औषधोपचार से बहुत अधिक जली हुई सी प्रतीत होती है । सकसकाति =(कभी) सांस लेकर वह कुछ कुछ होश में आने का आभास देती है। प्रचेत०%3D( कभी) भली भांति चेत ( होश ) में रहते हुए भी वह प्रचेत सी रहती है। प्रत= मानो प्रेम रूपी प्रेत ने उसे भली भांति पकड़ लिया है। -मुख-मुह । जनावही-जु गावहीं, गनावहीं, मनाव_ । ४१- सुषि०-सबुद्धि सिद्ध हरि तुम । हरित०-रहै तुम्हें बिन । व्यथा-वृया । राषिकहि-राधिहि । लौ-लहुँ । चितवनि-बिनवति । नीठि करि-दीठि करि । गदी-गादी । तरकति ताकि तरकि । प्रचेत-प्रचेतष्ठ मानह । OS -