पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२०७

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एकादश प्रभाव २११ -रवन तैसें छल बल साधि राधिकै मिलन कहँ, चाहत कियो पयान प्रानहूँ पलक में ५। शब्दार्थ (रमण) रमणीय । भवन-घर । अलिक = ललाट । प्रलक = केश, लट । सविलास-आनंदपूर्वक । फलक = पट्टी, स्थान । सयान सजि-चतुरतापूर्वक । झलक - कांति । पलक ( एक पंल ) क्षण भर में । भावार्थ--(नायक की उक्ति आत्मगत) जिस प्रकार पहले कानों के मार्ग से मन जाकर उनसे मिला ( कानों से उनकी सुंदरता का वर्णन सुनकर देखने लिए लालायित हुआ और जाकर मिला ) फिर वहां वह उनके भालपट्ठ और लट में अपना रमणीय घर बनाकर रहने लगा। मन के जा मिलने से नेत्र भी आनंदपूर्वक जा मिले और छबि की आशा में अपने को भूलकर कपोल- देश में रहने लगे । नेत्रों के मिलने से अब चातुर्यसहित ज्ञान (चेतना) भी जा मिला । उसने अपना अभिमान ( अहंता) त्याग दिया और वह शरीर की चमक में मुग्ध रह गया। ठीक उसी प्रकार अब छलबलपूर्वक राधिका से मिलने के लिए क्षण भर में प्राण भी प्रस्थान करना चाहते हैं। सूचना-प्राण त्यागने की अवस्था उपस्थित होने की बात कहने से करुण-विरह और प्रात्मगत होने से प्रच्छन्न है । अलंकार-एकावली । श्रीकृष्णजू को प्रकाश करुणाविरह, यथा-( सवैया ) (३६८) है तरुनाई तरंगिनि-पूर अपूरब पूरबराग रंगे पय । केसवदास जिहाज मनोरथ, संभ्रम विभ्रम, भूरि भरे भय । तर्क तरंग तरंगित तुंग तिमिगिल सूल विसालनि के चय । कान्ह कछू करुनामय हे सखि तैं ही किये करुना-वरुनालय ।। शब्दार्थ-तरुनाई युवावस्था । तरंगिनि = नदी । पूर = प्रवाह । अपू- रब = अपूर्व, अद्वितीय । पूरबराग = पूर्वराग । पयजल । संभ्रम = आतुरता। विभ्रम-चक्कर, आवर्त । भूरि भरे भय = अत्यधिक भय से भरे । तरंग= लहर । तरंगित = लहराती हुई । तुंग = ऊँची । तिमिगिल = बड़े बड़े जलजीव जो तिमि ( मछली) को निगल जाते हैं। सूल = ( शूलं) कष्ट । चय= समूह । हे = थे । बरुनालय = समुद्र । भावार्थ-( बहिरंग सखी की उक्ति नायिका से ) हे सखी ( पहले) कृष्ण के हृदय में तो किंचित् ही करुणा ( शोक ) थी, तुम्हीं ने उन्हें शोक- ५-जैसे-ऐसे । कोने-किये । राधिकै ०-राधिका कुअंरि ।