पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२१

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( २१ ) इन ठौरनि ही होत है प्रथम मिलन संसार । केसव राजा रंक को रचि राखे करतार ॥ शृंगारतिलक में इस प्रकार का कथन नहीं है । तत्त्वतः प्रधान रूप से उस ग्रंथ का सहारा लेते हुए भी केशव ने स्थान-स्थान पर विच्छेद दिखाया है। जैसे, खंडिता का लक्षण उन्होंने हिंदी की परंपरा में गृहीत रखा है। अभिसारिका के भेद वहाँ न होते हुए भी यहां संनिविष्ट किए हैं। समस्त नायिकाभेद की संख्या में अंतर किया है । शृंगारतिलक में समस्त संख्या यों मानी गई है- त्रयोदशविधा स्वीया द्विविधा च परांगना। एका वेश्या पुनश्चाष्टावस्थाभेदतोऽत्र ताः ॥ पुनश्च तास्त्रिधा सर्वा उत्तमा मध्यमाघमा । इत्थं शतत्रयं तासामशीतिश्चतुरुत्तरा ॥१८७४८८ स्वकीया के १३ भेद इस प्रकार होते हैं—मुग्धा १, मध्या धीराधीरादि ३, प्रौढ़ा धीराधीरादि ३ । मध्या और प्रौढ़ा के ज्येष्ठा और कनिष्ठा भेद होने से तीन-तीन भेद के छह-छह हो जाते हैं। इस प्रकार सव मिलाकर तेरह भेद हुए । मुग्धा-मध्या-प्रौढ़ा के जो नववधू, आरूढ़यौवना, लब्धायति आदि विशेषण हैं वे भेद में नहीं माने जाते । इन तेरह में परकीया के कन्या-ऊढ़ा दो भेद और वेश्या का एक भेद मिलाने से १६ हुए। इनमें अष्टनायिका के आठ भेदों का गुणन करने से १२८ और उत्तमादि तीन के गुणन से समस्त भेद ३८४ हुए । पर रसिकप्रिया में केवल ३६० ही भेद माने गए हैं- केसवदास सु तीन बिधि बरनी स्वकिया नारि । परकीया द्वै भाँति पुनि, पाठ पाठ अनुहारि ।। उत्तम मध्यम अधम अरु तीन तीन बिधि जान । प्रगट तीन से साठ तिय, केसवदास बखान ॥७॥३३-३४ ३६० की एक संगति तो यों बैठ सकती है कि स्वकीया ३४ पद्मिनी आदि ४ ( = १२ + परकीया २ + सामान्या १ = १५): स्वाधीनपतिकादि ८ = १२०४ उत्तमादि ३ = ३६० । दूसरी संगति शृंगारतिलक के अनुसार यह होगी-मुग्धा १ + मध्या धीराधीरादि ३ + ज्येष्ठा-कनिष्का २+प्रौढ़ा धीरा- धीरादि ३ + ज्येष्ठा-कनिष्ठा २ + परकीया २=१५४ अष्टनायिका ८-१२०x उत्तमादि ३ = ३६० । दूसरी स्थिति इसलिए भी ग्राह्य हो सकती है कि केशव ने सामान्या का परित्याग कर दिया है। केशव ने कहीं कहीं लिखा है कि मैं यह विचार अपनी मति के अनुसार कर रहा हूँ। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने यथास्थान कुछ जोड़ने का और कहीं कुछ घटाने का भी प्रयत्न किया है । ऊपर उन्होंने सामान्या को पृथक करके विस्तार घटाया है । कहीं विस्तार किया भी