२२६ रसिकप्रिया किसी प्रकार (चाँदनी रात में ) उस रंग (गौर वर्ण) वाली को छिपाकर ले भी आती हूँ तो उसकी (स्वाभाविक सुगंध की) वायु के पथ पर (पीछे पीछे) भौंरे चलने लगते हैं ( और चांदनी की उज्वलता में उसके रंग के मिल जाने के कारण, उसके पीछे पीछे चलनेवाले ) भौंरों को ही देखकर सहेलियाँ भ्रमरियों की भांति उसके पीछे पीछे चलती हैं। क्योंकि उन्हें उसके साथ चलने की इच्छा है, आवश्यकता है। एक तो उसके शरीर की (चांदनी सी) चमक ही अत्यंत कष्ट दे रही थी (पर जब उसकी कठिनाई दूर करने का रास्ता निकल पाया तो ) अब उसके शरीर की सुगंध सोलह आने (पूर्णतया) विष की भांति हो रही है। अब बताइए क्या करूँ ? मैं कोई पक्षी तो हूँ (नहीं कि उसे उड़ा लाऊँ । आपसे कैसे मिलाऊँ ? परोसिन को वचन राधिका सों, यथा-( सवैया ) (४२२) पाइ परें पलिका परस्यो सु लगी रति तोमल मेलि रती हो। सौंहैं किये मुँह सौंहों कियो अब लौं तुम पै गति ऐसी न ती हो। केसव कैसहुँ देखन कौं तिन्हैं भोरही भोरी है आनि दती हो। पान खवावतही तिन सों तुम राति कहा सतराति हती हो।११॥ शब्दार्थ-पलिका = पलंग, शय्या । रती = ( रति ) प्रेम; (रक्तिका) धुंधची । सौंहैं = कसमें । सौंहों = संमुख, सामने । ती = थी। हो = पादपति के लिए संबोधन में । भोरी = भोली भाली। पानि = प्राकर । दती हो - डटी हो, जम गई हो । सतराति हती-चिढ़ रही थीं। भावार्थ-(पड़ोसिन ने रात को नायिका के पान खाने में रूठने की माहट अपने घर से पा ली है, इस पर प्रिय को देखने के लिए माकर डटी हुई नायिका से वह कहती हैं ) आज सवेरे से ही भोली-भाली सी आकर जिन्हें देखने के लिए डटी हुई हो उन्हीं के पैरों पड़ने पर ( कल रात में ) पलंग को स्पर्श किया था (पैर रखा था )। (और पलंग पर पैर रखने पर भी ) रति ( प्रीति, घुघची) को हटाकर तुमने उनकी प्रीति तोलनी प्रारंभ की। कसमें खाने पर अपने मुंह को उनके सामने किया। ऐसा क्यों ? तुममें अब तक तो ऐसी चालढाल नहीं थी, भला रात में पान खिलाते समय ( उनसे ) चिढ़ क्यों रही थीं ? सूचना-सरदार कवि ने यह माना है कि पड़ोसिन ने स्वयम् पाहट नहीं पाई है। नायक ही उससे कह गया है। घाय, सखी आदि की अपेक्षा पड़ोसिन से कहना नायिका को उलाहना देने के लिए अधिक संभव है। ११-तोलन-लोलन । सौंहों-सौहैं। तिन्हें-जिन्हें। भोरी-भौरी। --
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