२५६ रसिकप्रिया सूचना-यह सवैया लीथोवाली प्रति में नहीं है। हस्तलिखित और 'सरदार' वाली प्रति में है। पर सरदार ने लिखा है कि 'यह कबित्त प्राचीन पुस्तकन में नाहीं मिलत यातें नारायण कवि याको अर्थ नाहीं लिखो।' श्रीकृष्णजू को कलहात, यथा-( सवैया ) (४७४) आजु सखी हरि तोसों कछू बड़ी बार नौं बात कही रसभीनी । मेलि गएँ पदुका पुनि केसब हारि हियें मनुहारि सी कीनी। मोहिं अचंभो महा सुहहा कहि बाँह कहा बड़ो बार लौं लीनी । तैं सिर हाथ दियो उनि उनि गाँठि कहा हँसि आँचर दीनी।१।। शब्दार्थ -बार लौं-देर तक। रसभीनी रसीली। पटुकामगार में बांधा जानेवाला वस्त्र । मेलि गरै पटुका गले में कमर वा पटका डालकर । हारि = हार मानकर । मनुहारि प्रार्थना । बड़ी बार लौं= बहुत देर तक। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका प्रति) हे सखी, आज श्रीकृष्ण तुमसे बड़ी देर तक कुछ रसीली बातें करते रहे, गले में पटका डालकर और हृदय से हार मानकर तेरी मनुहार सी करते रहे । (यहाँ तक तो कोई अचरज की बात नहीं, पर ) मुझे इस बात का बड़ा अचरज होता है कि उन्होंने बड़ी देर तक तुम्हारी बाँह (बड़े प्यार से ) ली। तुम भला बतलामो न क्या बात है ? तुमने उनके मस्तक पर हाथ क्यों रखा और उन्होंने हँसकर अंचल के छोर में गांठ क्यों दी ? ( नायिका ने सौत के यहाँ जाने की बात पर मान किया था, नायक ने अपने गले में पटका डालकर अपनी दीनता दिखाते हुए उसकी बिनती की कि अब ऐसी भूल न होगी, क्षमा करो। उसने देर तक नायिका की बांह पकड़कर शपथ ली। नायिका ने सिर पर हाथ रखकर क्षमा की और उन्होंने यह कहकर अंचल के छोर में गांठ दी कि अब गांठ बांधता हूँ, कभी ऐसा न करूँगा)! सूचना-'सरदार' ने सिर पर हाथ रखने का एक तात्पर्य 'संकेत में मिलना' भी लिया है। प्रति हाम-लक्षण ( दोहा ) (४७५) जहाँ हँसहि निरसंक है, प्रकरहिं सुख मुखबास । आधे आधे बरन पद, उपजि परत अतिहास ।१२। ११-बार-बेर । सी-सो। बाँह-वाह । बड़ी-बहू । बार लौं-बारन । १२-हसहि-हसे । ह्व-क । प्रगटहि-प्रकटें । प्राधे०-अर्ध बरन पद होत है ।
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