२७० रसिकप्रिया पुरुष पुरान अरु पूरन पुरान इन्हैं, पुरुष पुरान सु कहत किहिं हेत केसौदास देखि देखि सुरनि की सुंदरी वै, करति बिचार सब सुमति-समेत हैं। देखि गति गोपिका की भूलि जात निज गति, अगतिन कैसें धौं परम गति देत हैं।३६ शब्दार्थ --- मधु = शहद । पुरुष पुरान = पुराने पुरुष, चिरजीवी व्यक्ति लोमश आदि ऋषि । पूरन = संपूर्ण, सभी । पुरुष पुरान=पुराण पुरुष, आदिपुरुष (ब्रह्म), आप्त पुरुष । सुरन की सुंदरी - देवांगनाएँ। निज = निश्चय ही । अगतिन = जिसकी गति न हो उसे, पापियों को । परम गति चरम गति, मोक्ष। भावार्थ-( देवांगनाओं की उक्ति ) हे सखी, जो माखन का चोर है, शहद का चोर है, दही का चोर दूध का चोर है ( कहाँ तक कहूं-वह तो ऐसा भारी चोर है कि ) देखती नहीं, देखते देखते वह हृदय को भी चुरा लेता है। ऐसे को पुराने पुरुष और समस्त पुरुप भला पुराण पुरुष (ब्रह्म, प्राप्त, विश्वासयोग्य ) न जाने किस कारण कहते हैं। वे देवताओं की सभी सुंदरियां श्रीकृष्ण को देख देखकर वुद्धिपूर्वक इस प्रकार का विचार कर रही हैं। वे कहती हैं-'जो गोपिका ( राधिका ) की गति ( चाल ) देखकर निश्चय ही अपनी गति ( सुध-बुध) भूल जाता है, वह भला अगति (गतिहीन, पापी) लोगों को परम गति ( उत्तम गति, मोक्ष ) कैसे देता है । अलंकार-विरोधाभास । अथ समरस-लक्षण-(दोहा) (५००) सब तें होइ उदास मन, बसै एकहीं ठौर । ताही सों समरस कहैं, केसव कवि-सिरमौर ।३७। शब्दार्थ-ताही सों = उसी को । समरस = शांतरस । सूचना-इसके अनंतर निम्नांकित एक छंद मुद्रित और हस्तलिखित प्रतियों में और मिलता है, पर लीयोवाली प्रति में नहीं है। सरदार कवि ने लिखा है-'या कबित्त बहुत प्राचीन पुस्तकन में नाहीं मिलत' । पुनः, यथा- -( सवैया) बन मोहिं मिले हुते केसवराय कहा बरनौं गुन गूढ़ उघारे। जसुदा पै गई तब रोहिनी पै चुटियाहि गुहावत जाइ निहारे । ३६-देखै ०-देखत हौँ । चित०-हियों हरि, चित चोरें। पुरुष-पूरन । पूरन-पुरुष । सु-धौ । सब-सच । ३७–ताही सों-तासों समरस कहत हैं, ताही सों सब सांत रस । केसत्र०-कहत सुकवि ।
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