तृतीय प्रभाव १३ ( तश्तरी में ) आगे रखे दिए। इसके अनंतर जब उसने ( नायिका ने ) श्रीकृष्ण को झलने के लिए अपने हाथ में पंखा लिया तब उन्होंने हाथ पकड़ लिया और हँसकर कहने लगे कि मैंने तो इतना अपराध नहीं किया है (जिसका मुझे यह दंड दिया जा रहा है )। सूचना-चौथे चरण के ‘एतौ अवराधन कीनौ' पाठ से भी अच्छा अर्थ लग सकता है-श्रीकृष्ण ने हाथ पकड़ लिया और हँसकर कहा कि बहुत अधिक सेवा ( आराधना ) हो चुकी ( अब बस करो)। अथ प्राकृतिगुप्ता प्रौढ़ा धीरा, यथा-( सवैया ) (१०७) चितवौ चितवाएँ हँसाएँ हँसौ हो बुलाएँ तें बोलौरहो नतु मौने । सौंह अनेकनि आवहु अंक, करौ रति को प्रति रैन की रौने । व्वाएँ तें खाहु बरथाइ बिरी जनु आई हौ केसव आज ही गौने । मोहन के मन मोहन को सु कही यह धौं सिखई सिख कौने ६१॥ शब्दार्थ-रौने = रोदन ही । अथवा रोना = त्र्यागमन । ख्वाएँ = खिलाने से । बरयाइ = मुश्किल से। भावार्थ-( सखी की उक्ति नायिका से) देखने के लिए जब प्रेरित किया जाता है तब तुम देखती हो, हँसाया जाता है तो हँसती हो, बुलाने से बोलती हो नहीं तो चुपचाप ही रहती हो। अनेक कसमें खाने पर गोद में जाया) करती हो। प्रत्येक रात की प्रीति के लिए रोदन सा ठाने रहती हो ( अथवा ) प्रीति को रोने के समान संकोचशील किए रहती हो)। खिलाने पर भी बड़ी कठिनाई से पान की बीरी खाती हो, मानो भाज ही गौने भाई हो। मोहन ( जो सबको मोह लेता है ) के मन को मोहने के लिए यह शिक्षा न जाने किसने तुम्हें दी है। सूचना-'रोने' का अर्थ 'रोना ही, त्र्यागमन हो' करने पर दूसरी पंक्ति तीसरी के स्थान पर बदल दी जाए तो अच्छा हो। क्योंकि रौना गौने के अनंतर होता है। पुनर्यथा-(सवैया ) (१०८) हित के इत देखहु देख्यो सबै हित-बात सुनौ जु सुनी सब ही हैं। यह तो कछु और वहै सब ही अरु सौंह करौ ब करी जुतही हैं। ६०-मागें हूँ प्रागेहि । बोरी बीरा । घरी-धरो। जब-जबै । जब.- सो जबै हरि । कर-बर । ऐसे-ऐसो । मैं तो-एतो । अपराध न-प्रवराषन । ६१-हो-प्रो। नतु-तित । ख्वाएँ०-कोइ खवाए तें खामो बिरी । मोहन कों-मोहिबे कों। प्राया
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