सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय प्रभाव अलंकार -दृष्टान । सूचना-लीथोवाली और छपी प्रतियों में यह छंद नहीं है, पर हस्त- लिखित प्रतियों में है। अथ प्रौढ़ा-धीराधीरा-लक्षण-(दोहा ) (१११) मुख रूखी बातें कहै, जिय मैं पिय की भूख । धीराधीरा जानिये, जैसी मीठी ऊख ।६।। यथा-( सवैया ) (११२) हो मन मैलो न जौ लौं कछू अब छाडहु बोलिबो बोल हँसौं हैं । केसव औरनि सों रसरासि रस्यो रसबाद सबै हम सौं हैं। देखहु धौ इक बार सँकोचनि पारस-लोचन आरसी सौंहैं । आए जू वैसेई साज सौं श्राजु सु भूलि गई पिय काल्हि की सौहैं । शब्दार्थ-मैलो = मलिन, उदासीन । रसरासि-आनंदपूर्ण बातें । रस्यो=की। रसबाद = ( प्रेम के ) झगड़े। सँकोच - लज्जा। सौहैं - सामने । सौंहैं शपथें । भावार्थ-(नायिका की उक्ति नायक से) हे प्रिय, (जान पड़ता है कि ) मापको कल की शपथें भूल गई ? क्योंकि आप आज भी वैसे ही साज (वेश) से यहाँ पाए हैं ? मेरा मन आपके प्रति तब तक उदासीन ही रहेगा जब तक प्राप अपने ये, हँसीवाले बोल बोलना नहीं छोड़ देते। आप पोरों ( सौतों) से तो प्रानंदपूर्ण बातें किया करते हैं, सारे झगड़े केवल मेरे ही साथ होते हैं। एक बार जरा अपने संकोच और प्रालस्य से भरे नेत्रों को दर्पण के सामने देख पाइए ( फिर मुझसे बातें कीजिए )। ( रात्रि के जागरण की गवाही आपका चेहरा दे रहा है )। इति स्वकीया। अथ परकीया-लक्षण-(दोहा) (११३) सब तें पर परसिद्ध जग, ताकी जु प्रिया होइ । परकीया तासों कहैं, परम पुराने लोइ ।६७। शब्दार्थ -सब तें लोक और वेद दोनो से । पर अन्य ( परपुरुष )। परसिद्ध-प्रसिद्ध, प्रख्यात । लोइ-लोग । अथ परकीया के भेद-(दोहा )• (११४) परकीया द्वै भाँति पुनि, ऊढ़ा एक अनूह । जिन्हें देखि सुनि होत बस, संतत मूढ़ अमूढ़ ।६८। शब्दार्थ-ऊढ़ा=विवाहिता । अनूढ=अनूढ़ा, अविवाहिता । अमूढ-पंडित । ६५-धीराघोरा-धौर अधीरा । ६६-हो-हौं । मैलो-मैले । जो लौं-बोलौं । रस्यो-रसौ । ६७-जग-जो । ६८ -जिन्हैं जिनहीं । सुनि-सब। सब-हैं । ।