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रस-मीमांसा

है, इसका पता वर्णन की प्रणाली से लग जाता है। पहले कह आए हैं कि किसी वर्णन में आई हुई वस्तुओं का मन में ग्रहण दो प्रकार का हो सकता है-विबग्रहण और अर्थग्रहण ।' किसी ने कहा 'कमल'। अब इस ‘कमल पद का ग्रहण कोई इस प्रकार भी कर सकता है कि ललाई लिए हुए सफेद पंखड़ियों और झुके हुए नाल आदि के सहित एक फूल की मूर्ति मन में थोड़ी देर के लिये आ जाय या कुछ देर बनी रहे ; और इस प्रकार भी कर सकता है कि कोई चित्र उपस्थित न हो; केवल पद का अर्थ मान्न समझकर काम चला लिया जाय । काव्य के दृश्य-चित्रण में पहले प्रकार का संकेत-ग्रहण अपेक्षित होता है। और व्यवहार तथा शास्त्र-चर्चा में दूसरे प्रकार का । विबग्रहण वहीं होता है जहाँ कवि अपने सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा बस्तुओं के अंग-प्रत्यंग, वर्ण, आकृति तथा उनके आसपास की परिस्थिति का परस्पर संश्लिष्ट विवरण देता है। बिना अनुराग के ऐसे सूक्ष्म ब्योरों पर न दृष्टि जा ही सकती है, न रम ही सकती है। अतः जहाँ ऐसा पूर्ण संश्लिष्ट चित्रण मिले वहाँ समझना चाहिए कि कवि ने वाह्य प्रकृति कों आलंबन के रूप में ग्रहण किया है। उदाहरण के लिये वाल्मीकि का यह हेमंतवर्णन लीजिए-

अवश्याय-निपातेन किञ्चित्प्रक्लिन्नश द्विला ।

वनानां शोभते भूमिर्निविष्टतरुणातपा ।।

स्पृशंस्तु विपुलं शीतमुदकं द्विरदः सुखम् ।

अत्यन्ततृषितों वन्यः प्रतिसंहरते करम् ।।

अवश्याय - तमोनद्धा नीहार - तमसावृताः ।

प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा वनराजयः ।।

१ [ देखिए चिंतामणि, दूसरा भाग, काव्य में प्राकृतिक दृश्य, पृष्ठ १ ।]