पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/२८४

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प्रत्यक्ष रूप-विधान यदि हम इन दोनों बातों को प्रत्यक्ष उपस्थित आलंबनों के प्रति जगनेवाले भावों की अनुभूतियों पर घटाकर देखते हैं तो पता चलता है कि कुछ भावों में तो ये बातें कुछ ही दुशाओं में या कुछ अंशों तक घटित होती हैं और कुछ में बहुत दूर तक या बराबर।। ‘रति भाव’ को लीजिए। गहरी प्रेमानुभूति की दशा में मनुष्य रसलोक में ही पहुँचा रहता है। उसे अपने तन बदन की सुध नहीं रहती, वह सब कुछ भूल कभी फूला फूला फिरता है, कभी खिन्न पड़ा रहता है। हर्ष, विषाद, स्मृति इत्यादि अनेक संचारियों का अनुभव वह बीच बीच में अपना व्यक्तित्व भूला हुआ करता है। पर अभिलाष, औत्सुक्य आदि कुछ दशाओं में अपने व्यक्तित्व का संबंध जितना ही अधिक और घनिष्ठ होकर अंतःकरण में स्फुट रहेगा प्रेमानुभूति उतनी ही रसकोटि के बाहर रहेगी। अभिलाप' में जहाँ अपने व्यक्तित्व का संबंध अत्यंत अल्प या सूक्ष्म रहता है-जैसे, रूप-अवलोकन मात्र का अभिलाप ; प्रिय जहाँ रहे सुख से रहे इस बात का अभिलाष-वहाँ वास्तविक अनुभूति रस के किनारे तक पहुँची हुई होती है। आलंबन के साधारणीकरण के संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि रति भाव की पूर्ण पुष्टि के लिये कुछ काल अपेक्षित होता है। पर अत्यंत मोहक आलंबन को सामने पाकर कुछ क्षणों के लिये तो प्रेम के प्रथम अवयव* का उदय एक साथ बहुतों के हृदय में होगा । वह अवयव है, अच्छा या रमणीय लगना। ‘हास' में भी यही बात होती है कि जहाँ उसका पात्र सामने

  • देखिए जोम और प्रीती' नामक प्रबंध [ चिंतामणि, पहना भाग 1 पृष्ट ३४ ।