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रस-मीमांसा

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इस-मीमांसा व्यक्ति मात्र या वस्तु मात्र ( जाति ) के अर्थ-संकेत के रूप में आते हैं। साधारणीकरण' का अभिप्राय यह है कि पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष आती है वह जैसे काव्य में वर्णित ‘आश्रय के भाव का आलंबन होती है वैसे ही सब सहदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आनंबन हो जाती है। जिस व्यक्ति विशेष के प्रति किसी भाव की व्यंजना कवि या पात्र करता है, पाठक या श्रोता की कल्पना में वह व्यक्ति विशेष ही उपस्थित रहता है। हाँ, कभी कभी ऐसा भी होता है कि पाठक या श्रोता की मनोवृत्ति या संस्कार के कारण वर्णित व्यक्ति विशेष के स्थान पर कल्पना में उसी के समान : धर्मवाली कोई मूर्ति विशेष आ जाती है । जैसे, यदि किसी पाठक या श्रोता का किसी सुंदरी से प्रेम है तो श्रृंगार रस की फुट कल उक्तियाँ सुनने के समय रह-रहकर आलंबन-रूप में उसकी प्रेयसी की भूति ही उसकी कल्पना में आएगी। यदि किसी से प्रेम न हुआ तो सुंदरी की.कोई कल्पित मूर्ति उसके मन में आएगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कल्पित मूर्ति भी विशेष ही होगी-- व्यक्ति की ही होगी। | कल्पना में मूर्ति तो विशेष ही की होगी, पर वह मूर्ति ऐसी होगी जो प्रस्तुत भाव का आलंबन हो सके, जो उसी भाव को पाठक या श्रोता के मन में भी जगाए जिसकी व्यंजना आश्रय अथवा कवि करता है। इससे सिद्ध हुआ कि साधारणीकरण, आलंबनत्व धर्म का होता है। व्यक्ति तो विशेष ही रहता है; पर उसमें प्रतिष्ठा ऐसे सामान्य धर्म की रहती हैं जिसके साक्षाकार से सब श्रोताओं या पाठकों के मन में एक ही भाव का उदय थोड़ा या बहुत होता है--तात्पर्य यह किं आलंबन रूप • में प्रतिष्ठित व्यक्ति, समान प्रभाववाले कुछ धर्मों की प्रतिष्ठा के