पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/३४

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काव्य अपने लाभ के ध्यान से या स्वार्थबुद्धि द्वारा ही परिचालित नहीं होते। उनकी यही विशेषता अर्थपरायणों को-अपने काम से काम रखनेवालों को–एक त्रुटि सी जान पड़ती है। कवि और भाबुक हाथ-पैर न हिलाते हों, यह बात नहीं है। पर अर्थियों के निकट उनकी बहुत सी क्रियाओं का कोई अर्थ नहीं होता। मनुष्यता की उच्च भूमि मनुष्य की चेष्टाओं और कर्मकलाप से भावों का मूल संबंध निरूपित हो चुका है और यह भी दिखाया जा चुका है। कि कविता इन भावों या मनोविकारों के क्षेत्र को विस्तृत करती हुई उनका प्रसार करती है। पशुत्व से मनुष्यत्व में जिस प्रकार अधिक ज्ञान-प्रसार की विशेषता हैं उसी प्रकार अधिक भाव-प्रसार की भी । पशुओं के प्रेम की पहुँच प्रायः अपने जोड़े, बच्चों या खिलाने-पिलानेवालों तक ही होती है। इसी प्रकार उनका क्रोध भी अपने सतानेवालों तक ही जाता है, स्ववर्ग या पशुमात्र को सतानेवालों तक नहीं पहुँचता । पर मनुष्य में ज्ञान-प्रसार के साथ साथ भाव-प्रसार भी क्रमशः बढ़ता गया है। अपने परिजनों, अपने संबंधियों, अपने पड़ोसियों, अपने देशवासियों क्या मनुष्य मात्र और प्राणिमात्र तक से प्रेम करने भर को जगह उसके हृदय में बन गई। मनुष्य की त्यो मनुष्य को ही सतानेवाले पर नहीं चढ़ती ; गाय-बैल और कुत्ते-बिल्ली को सतानेवाले पर भी चढ़ती है। पशु की वेदना देखकर भी उसके नेत्र सज़ल होते हैं। बंदर को शायद बँदरिया के मुँह में ही सौंदर्य दिखाई पड़ता होगा पर मनुष्य पशु-पक्षी, फूल-पत्ते और रेत-पत्थर में भी