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रस-मीमांसा

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३५ रस-मीमांसा विधान का नाम क्रोध का भाव है। रौद्ररस के प्रसंग में कवि लोग जो उपमान लाते हैं वे भी संतापदायक या उग्र होते हैं, जैसे अग्नि । क्रोध से रक्तवर्ण नेत्रों की उपमा जब कोई कवि देगा तब अंगार आदि कीं देगा, रक्त कमल या बंधूक-पुष्प की नहीं। इसी प्रकार श्रृंगार रस में रक्त, मांस, फफोले, हड्डी आदि का वीभत्स दृश्य सामने आना अरुचिकर प्रतीत होता है। पर जहाँ केवल ‘तात्पर्य के उत्कर्ष का ध्यान प्रधान रहेगा खयाल की बारीकी या बलंदपरबाजी पर ही नजर रहेगी–वहाँ भाव के स्वरूप कर उतना विचार न रह जायगा। फारसी की शायरी में ही विप्रलंभ श्रृंगार के अंतर्गत ऐसे बीभत्स दृश्य प्रायः लाए जाते हैं। यदि कवि सच्चा है, शेष सृष्टि के साथ उसके हृदय का पूर्ण सामंजस्य है, उसमें सृष्टि-व्यापिनी सहृदयता हैं तो उसके सादृश्यविधान में एक बात और लक्षित होगी । वह जिस सदृश वस्नु या व्यापार की ओर ध्यान ले जायगा कहीं कहीं उससे मनुष्य को और प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपने संबंध की बड़ी सच्ची अनुभूति होगी । विरह-ताप से झुलसी और सूखी हुई नागमती को जव प्रिय के आगमन का आभास मिलता है तब उसकी दशा कैसी होती हैं जस भुइँ दहिं असाढ़ पलुहाई । परहिं बूंद सोध बसाई ।। ओहि भाँति पलुहीं सुख नारी । उठी कुरिल नइ कप सँवारी ।। इसमें मनुष्य देखता हैं कि जिस प्रकार संताप और आह्लाद के चिह्न मेरे शरीर में दिखाई पड़ते हैं वैसे ही पेड़-पौधों के भी। इस प्रकार उनके साथ अपने संबंध की अनुभूति का उदय उसके हृदय में होता है। ऐसी अनुभूति द्वारा मानव-हृदय का प्रसार करने में जो कवि समर्थ हो वह् धन्य है। शरीर पनपना' आदि लाक्षणिक प्रयोग जो बोलचाल में आ गए हैं वे ऐसे ही कवियों की कृपा से प्राप्त हुए हैं।