पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/६६

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काव्य के विभाग आत्मबोध और जगद्वोध के बीच ज्ञानियों ने गहरी खाई खोदी पर हृदय ने कभी उसकी परवा न की ; भावना दोनों को एक ही मानकर चलती रही। इस दृश्य जगत् के बीच जिस आनंद-मंगल की विभूति का साक्षात्कार होता रहा उसी के स्वरूप की नित्य और चरम भावना द्वारा भक्तों के हृदय में भगवान् के स्वरूप की प्रतिष्ठा हुई। लोक में इसी स्वरूप के प्रकाश को किसी ने ‘रामराज्य' कहा, किसी ने आसमान की बादशाहत । यद्यपि मूसाइयों और उनके अनुगामी ईसाइयों की धर्म-पुस्तक में आदम खुदा की प्रतिमूत्ति बताया गया पर लोक के बीच नर में नारायण की दिव्य कला का सम्यक् दर्शन और उसके प्रति हृद्य का पूर्ण निवेदन भारतीय भक्तिमार्ग मैं ही दिखाई पड़ा। सत् , चित् और आनंद -ब्रह्म के इन तीन स्वरूपों में से काव्य और भक्तिमार्ग 'आनंद' स्वरूप को लेकर चले । विचार करने पर लोक में इस आनंद की अभिव्यक्ति की दो अवस्थाएँ