पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१०१

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ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] १०२ [ 'हरिऔध' बोली के कुछ कवियों को शुद्ध शब्द-प्रयोग का नशा-सा हो गया है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि इससे कविता में कर्कशता आ गयी है। यदि अक्ष के बजाय अाँख, कर्ण के स्थान पर कान, दन्त के स्थान पर दाँत, जिह्वा के स्थान पर जीभ, प्रोष्ठ की जगह पर अोठ या होंठ लिखना ठीक है तो मुख के स्थान पर मुँह, अाशा के स्थान पर प्रास, वेश के स्थान पर भेस, यश के स्थान पर जस, विष के स्थान पर विख लिखना भी ठीक है। दोनों प्रकार के शब्द ही अपभ्रंश शब्द हैं। इसी प्रकार के और बहुत से शब्द' बतलाये जा सकते हैं। चाहिये यह कि अपभ्रंश शब्दों के व्यवहार के लिए, परस्पर कलह न करें—प्रयोग करने न करने के लिये सब स्वतन्त्र हैं। किन्तु, यह अाग्रह उचित जहीं कि हम प्रयोग करेंगे तो शुद्ध शब्द का ही प्रयोग करेंगे। इसका यह परिणाम होगा कि अाँख, कान इत्यादि के स्थान पर अक्ष और कर्ण इत्यादि लिखे जाने लगेंगे, भाषा कृत्रिम हो जायेगी और हिन्दी का हिन्दीपन लोप हो जायेगा । यह स्मरण रखना चाहिये कि हिन्दी भाषा की जननी अपभ्रंश भाषा है, हिन्दी की प्रशंसा इसीलिये है कि वह तद्भव शब्दों द्वारा सुगठित है-जिस दिन उसके आधार तत्सम शब्द हो जायेंगे उसी दिन वह अपना स्वरूप खोकर अन्तर्हित हो जायेगी। नियम यह होना चाहिये कि प्रयोग आवश्यकतानुसार तद्भव और तत्सम दोनों प्रकार के शब्दों का हो; किन्तु प्रधानता तद्भव शब्दों को दी जाये। संस्कृत के विद्वान् भी तद्भव शब्दों का प्रयोग करते देखे जाते हैं, शुद्ध शब्दों का प्रयोग तो वे करते ही हैं। हमलोगों को भी उन्हीं का पदानुसरण करना चाहिये । कुछ ऐसे प्रयोग दिखलाये जाते हैं-शुद्ध शब्द 'क्षुर' है; अपभ्रंश उसका 'खुर' है। इसी प्रकार प्रियाल शब्द शुद्ध और पियाल अपभ्रंश है। कविकुल-गुरु कालिदास रघुवंश के 'तस्याखुरन्यास पवित्र पांशुम्' और कुमारसम्भव के "मृगाः पियाल द्रुम मंजरीणाम्” वाक्यों में . 'खुर' और 'पियाल' का प्रयोग करते पाये जाते हैं ।