पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१०३

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ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] १०४ [ 'हरिऔध' उत्पत्स्यस्तेस्ति मम कोपि समान धर्मा, कालोह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥ . किन्तु, बाद को वह समय भी आया जब वह इन शब्दों में स्मरण किये गये- "कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते" अथवा भवभूतेः संबंधाद् भूरेव भारती भाति । एतत्कृत कारुण्ये किमन्यथा रोदित ग्रावा ।।*

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