कबीर साहब ] १४२ [ 'हरिऔध' जो ब्यावै तो दूध न देई ग्याभण अमृत सरवै। कौली घाल्यां बीदरि चालै ज्यूं घेरौं त्यूँ दरवै । तिहीं धेन थें इच्छया पूगी पाकड़ि लूँटै बाँधी रे । ग्वाड़ा माँ है आनँद उपनौ खूटै दोऊ बाँधी रे। साँई माइ सास पुनि साई साई याकी नारी । कहै कबीर परम पद पाया संतो लेहु बिचारी। कबीर साहब ने स्वयं कहा है 'बोली मेरी पुरुब की' जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचना पूर्वी हिन्दी में हुई है और इन कारणों से यह बात पुष्ट होती है कि वे पूर्व के रहनेवाले थे और उनकी जन्मभूमि काशी थी। काशी और उसके आस-पास के जिलों में भोजपुरी और अवधी भाषा ही अधिकतर बोली जाती है। इसलिए उनकी भाषा का पूर्वी भाषा होना निश्चित है और ऐसी अवस्था में उनकी रच- नात्रों को पूर्वी भाषा में ही होना चाहिये। यह सत्य है कि उन्होंने बहुत अधिक देशाटन किया था और इससे उनकी भाषा पर दूसरे प्रान्तों की कुछ बोलियों का भी थोड़ा बहुत प्रभाव हो सकता है। किन्तु इससे उनकी मुख्य भाषा में इतना अन्तर नहीं पड़ सकता कि वह बिल्कुल अन्य प्रान्तों की भाषा बन जाय। सभा द्वारा जो पुस्तक प्रकाशित हुई है उसकी भाषा ऐसी ही है जो पूर्व की भाषा नहीं कहीं जा सकती । उसमें पंजाबी और राजस्थानी भाषा का पुट अधिकतर पाया जाता है । ऊपर के पद्य इसके प्रमाण है। कुछ लोगों का विचार है कि कबीर साहब के इस कथन का कि 'बोली मेरी पुरुष की', यह अर्थ है कि मेरी भावा पूर्व काल की है, अर्थात् सृष्टि के आदि की। किन्तु यह कथन कहाँ तक संगत है, इसको विद्वजन स्वयं समझ सकते हैं। सृष्टि के आदि की बोलीं से यदि यह प्रयोजन है कि उनकी शिक्षाएँ आदिम हैं तो भी वह स्वीकार-योग्य नहीं,क्योंकि उनकी जितनी शिक्षाएँ हैं उन सब में परम्परागत
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