कबीर साहब ] १४५ [ 'हरिऔध' रूप मिलता है जैसा सिक्खों के आदि ग्रंथ साहब में पाया जाता है। मैं इसी पदावली में से दो पद्य नीचे लिखता हूँ :- १-हम न मरें, मरिहै संसारा, हमकू मिल्या जियावन हारा। अब न मरौं, मरनै मन माना, तेइ भए जिन राम न जाना। साकत मरै संत जन जीवै, भरि भरि राम रमायन पीवै। हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं, हरि न मरें, हम काहे कूँ मरि हैं। कहै कबीर मन मनहिं मिलावा, अमर भये सुखसागर पावा । २-काहे रे मन दह दिसि धावै, विषया सँगि संतोष न पावै । जहाँ-जहाँ कलपै तहाँ तहाँ बंधना, रतन को थाल कियो तै रंधना । जो पै सुख पइयत मन माहीं, तौ राज छाढ़ि कत बन को जाहीं। आनन्द सहत तजौ विष नारी, अब क्या भीष पतित भिषारो। कह कधीर यहु सुख दिन चारि, तजि विषया भजि चरन मुरारि । मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उद्धृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव
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