पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कविवर सूरदास ] १७८ [ 'हरिऔध' में 'मधुर' के साथ मिला हुआ एकार भाव वाचकता का सूचक है। 'दोना. पीठि दुरायो' में 'पीठि' के साथ मिलित इकार अधिकरण के 'में' चिह्न का द्योतक है इत्यादि । ६-वैदर्भी वृत्ति का यह लक्षण है कि उसमें समस्त पद आते ही नहीं। यदि आते हैं तो साधारण समस्त पद पाते हैं, लम्बे नहीं। कविवर सूरदासजी की रचना में यह विशेषता पायी जाती है, जैसे कमल नयन', 'अम्बुज रस', करीलफल इत्यादि । ७-कोमलता उत्पादन के लिए वे प्रायः 'ड' और 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग करते हैं । जैसे 'घोड़ो' के स्थान पर 'घोरो', तोड़ो' के स्थान पर 'तोरो', 'छेड़ो' के स्थान पर 'छेरो'। इसी प्रकार 'मूल' के स्थान पर 'मूर' और 'चटसाल' के स्थान पर 'चटसार'। उनकी रचनात्रों में विकल्प से 'ड' का भी प्रयोग देखा जाता है और 'ल' के स्थान पर '२१ का प्रयोग सब स्थानों पर ही होता। शब्द' के मध्य का यकार और वकार बहुधा 'ऐ' और 'श्री' होता रहता है। जैसा 'नयन', 'वयन', 'सयन' का 'नैन', 'बैन', 'सैन' इत्यादि और 'पवन' 'गवन', 'रवन' का 'पौन' 'गौन', 'शैन' इत्यादि । परन्तु उसका तत्सम रूप भी वे लिखते हैं। प्रायः ब्रजभाषा में वह शब्द' जिसके आदि में ह्रस्व इकार युक्त कोई व्यञ्जन होता है और उसके बाद 'या' होता है तो आदि व्यञ्जन का इकार गिर जाता है और वह अपने पर वर्ण 'य' में हलन्त होकर मिल जाता है, जैसे 'सियार' का 'स्यार' 'पियास' का 'प्यास' इत्यादि । किन्तु उनकी रचनाओं में दोनों प्रकार का रूप मिलता है। वे 'प्यास' भी लिखते हैं और 'पियास' भी, 'प्यार' भी लिखते हैं और 'पियार' भी। ऊपर लिखे पद्यों में आप इस प्रकार का प्रयोग देख सकते हैं। ८-सूरदासजी को अपनी रचनाओं में मुहावरों का प्रयोग करते भी देखा जाता है । परन्तु चुने हुए मुहाविरे ही उनकी रचना में आते