पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२१७

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कविवर केशवदास ] २१८ [ 'हरिऔधः ६-चढ़ो गगन तरु घाय, दिनकर पानर अरुणमुख । कीन्हों मुकि महराय, सकल तारका कुसुम बिन । ७-अरुण गात अति प्रात, पद्मिनी प्राणनाथ भय । मानहुँ केशवदास, कोकनद कोक प्रेममय । परिपूरण सिंदूर पूर, कैधौं मंगल घट । किधौं शक्र को क्षत्र, मढ़यो माणिक मयूख पट । कै शोणित कलित कपाल यह किल कापालिक काल को, यह ललित लाल कैधौं लसत दिग्भामिनि के भाल को। -श्रीपुर में बनमध्य हौं, तू मग करी अनीति । कहि मुंदरी अब तियन की, को करि है परतीति । .६-फलफूलन पूरे तरुवर रूरे कोकिल कुल कलरव बोलें । अति मत्त मयूरी पियरस पूरी बनधन प्रति नाचत डोलें। सारी शुक पंडित गुनगन मंडित भावनमय अर्थ वखार्ने । देख्ने रघुनायक सीय सहायक मनहुँ मदन रवि मधुजानें २०-मन्द मन्द धुनि सों धन गाजै । तूर तार जनु आवम बाजे । ठौर ठौर चपला चमक यों । इन्द्रलोक तिय नाचति है क्यों । सोहैं धन स्यामल घोर घने । मोहे विनमें बक पाँति मने । शंखावलि पी बहुधा जलस्यों । __ मानो तिनको उगिलै बलस्यों ।