पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कविवर बिहारीलाल ] २३५ ['हरिऔध' अति अगाध अति ऊथरो नदी कूप सर वाय । सो ताको सागर जहाँ जाको प्यास बुझाय ॥ बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय । घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलाय ॥ को कहि सकै बड़ेन सों लखे बड़ीयौ भूल । दीन्हें दई गुलाब की इन डारन ये फूल ॥ कुछ उनके शृङ्गार रस के दोहे देखिये:- बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय । सौंह करै भौंहनि हँसै देन कहै नट जाय । हग अरुझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति । परति गाँठ दुरजन हिये दुई नई यह रोति । तच्यो आँच अति बिरह की रह्यो प्रेम रस भीजि । नैनन के मग जल बहै हियो पसीजि पसीजि । सघन कुंज छाया सुखद सीतल मन्द समीर । मन है जात अजौं' वहै वा यमुना के तीर । मानहुँ विधि तन प्रच्छ छवि स्वच्छ राखिबे काज । हग पग पोंछन को कियो भूखन पायंदाज । बिहारीलाल के उद्धृत दोहों में से सब का मर्म समझाने की यदि चेष्टा की जाय तो व्यर्थ विस्तार होगा जो अपेक्षित नहीं। कुछ दोहों का मैंने स्पष्टीकरण किया है। वही मार्ग ग्रहण करने से अाशा है, काव्य मर्मज्ञ सुजन अन्य दोहों का अर्थ भी लगा लेंगे और उनकी व्यंजनात्रों का मर्म समझ कर यथार्थ अानन्द-लाभ करेंगे। बिहारी के