पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/२३६

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कविवर बिहारीलाल ] २३७ [ 'हरिऔध' मयी है, तो इस प्रकारके प्रश्न हो ही नहीं सकते। जो परमात्मा की विभूतियाँ विश्व के समस्त पदार्थों में देखते हैं और यह जानते हैं कि परमात्मा सच्चिदानन्द है, वे संसार की मङ्गलमयी और उपयोगी कृतियों को बुरी दृष्टि से नहीं देख सकते। यदि बिहारीलाल ने स्त्री के सौंदर्य- वर्णन में उच्च कोटि की कवि-कल्पना से काम लिया, उनके नाना आनन्दमय भावों के चित्रण में अपूर्व कौशल दिखलाया, मानस की सुकुमार वृत्तियों के निरूपण में सच्ची भावुकता प्रकट की, विश्व की. सारभूत दो मङ्गलमयी मूर्तियों ( स्त्री-पुरुष ) की मङ्गलमयी कमनीयता थैप्रदर्शित की और अपने पद्यों में शब्द और भाव-विन्यास के मोती पिरोये तो क्या लोक-ललाम की लोकोत्तर लीलाओं को ही रूपान्तर से प्रकट नहीं किया ? और यदि यह सत्य है तो बिहारीलाल पर व्यंग वाण-वृष्टि क्यों ? मयंक में धब्बे हैं, फूल में काँटे हैं, तो क्या उनमें 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का विकास नहीं है। बिहारी की कुछ कविताएँ प्रकृति नियमानुसार सर्वथा निर्दोष न हों तो क्या इससे उनकी समस्त रचनाएँ निन्दनीय हैं ? लोक-ललाम की ललामता लोकोत्तर है, इस- लिए क्या उसका लोक से कुछ सम्बन्ध नहीं ? क्या लोक से ही उसकी लोकोत्तरता का ज्ञान नहीं होता ? तो फिर लोक का त्याग कैसे होगा ? निस्सन्देह यह स्वीकार करना पड़ेगा कि लोक का सदुपयोग ही वांछ- नीय है, दुरुपयोग नहीं। जहाँ 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' है वहाँ उसको उसी रूप में ग्रहण करना कवि कर्म है। बिहारीलाल ने अधिकांश ऐसा ही किया है, वरन मैं तो यह कहूँगा कि उनकी कला पर गोस्वामीजी का यह कथन चरितार्थ होता है कि 'सुन्दरता कहँ सुन्दर करही । संसार में प्रत्येक प्राणी का कुछ कार्य होता है। अधिकारी भेद भी होता है । संसार में कवि भी हैं, वैज्ञानिक भी हैं, दार्शनिक भी हैं, तत्वज्ञ भी हैं एवं महात्मा भी। जो जिस रूप में कार्यक्षेत्र में आता है, हमको उसी रूप में उसे ग्रहण करना चाहिये और देखना चाहिये कि उसने