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कविवर देव] २४८ [ 'हरिऔध' (७) गुरु जन जावन मिल्यो न भयो दृढ़ दधि ... मथ्यो न बिवेक रई देव जो बनायगो। माखन मुकुति कहाँ छाड्यो न भुगुति जहाँ नेह बिनु सगरो सवाद खेह नायगो। बिलखत बच्यो मूल कच्यो सच्यो लोभ भांड़े नच्यो कोप आँच पच्यो मदन छिनायगो। पायो न सिरावनि सलिल छिमा छींटन सों दूध सो जनक बिनु जाने उफनायगो । (८) कथा मैं न कथा मैं न तीरथ के पंथा मैं न . पोथी मैं न पाथ मैं न साथ की बसीती मैं। जटा मैं न मुंडन न तिलक त्रिपुंडन न
- नदी कूप कुंडन अन्हान · दान रीति में।
पीठ मठ मंडल न कुंडल कमंडल न मालादंड मैं न देव देहरे की भीति मैं। आपुही अपार पारावार प्रभु पूरि रह्यो पाइये प्रगट परमेसर प्रतीति मैं। (१) संपति में ऐंठि बैठे चौतरा अदालति के विपत्ति में पैन्हि बैठे पाँय मुनमुनियाँ । जेतो सुख संपति तितोई दुख बिपति मैं संपति मैं मिरजा विपति परे धुनियाँ ।