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हरिऔध---]
[---रस-साहित्य-समीक्षाएँ
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खड़ी बोली के मत्थे मढ़ते रहे। वे मान बैठे थे कि खड़ी बोली में काव्य की सृष्टि हो ही नहीं सकती। जो लोग खड़ी बोली में काव्य-रचना के पक्षपाती थे, उनकी भर्त्सना इस मंडल के अनेक सदस्यों ने समय-समय पर की और एक बहुत बड़ा विवाद इस प्रश्न पर छिड़ा। पर जीत खड़ी बोली की ही रही। खड़ी बोली को काव्य की भाषा बनाने का प्रयत्न प्रमुख रूप से सर्वश्री श्रीधर पाठक, राय देवीप्रसाद, नाथूराम शंकर शर्मा आदि ने किया। खड़ी बोली के प्रति उनकी सतत निष्ठा का परिणाम यह हुआ कि हिन्दी में नवागत खड़ी बोली में रचना करने के लिए लोग परिकर बद्ध हुए। कभी कभी फिर भी विरोध के दर्शन हो ही जाते थे।

काव्य में खड़ी बोली की प्रगति की कहानी 'सरस्वती' के प्रकाशन से आरम्भ होती है। पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी सरस्वती द्वारा प्रारम्भिक दशा की खड़ी बोली को काव्य का रूप देने के लिए प्रयोगकर्ता के रूप में दीख पड़ते हैं।

यद्यपि भारतेन्दु कालीन साहित्य में श्रृंगार काल की विलासपूर्ण भाव-धारा के प्रति विद्रोह का स्पष्ट आभास मिलता है, सामाजिक पतन से निवृत्ति के लिए उस युग का भावशिल्पी विह्वल दीख पड़ता है, धार्मिक एवं दार्शनिक मनोवृत्तियों में भी नव संस्कारयुक्त मानवीय चेतना के दर्शन होते हैं, तो भी उस युग का काव्य सामाजिक चेतना से अनुप्राणित खण्डनात्मक-मण्डनात्मक अधिक है और उसमें गद्य से भी अधिक नीरसता है। देश-दुर्दशा, विधवाविवाह, बाल विवाह आदि काव्य के नये सामाजिक उपकरण, १९वीं शताब्दी में ही बन चुके थे। अनैसर्गिक मानवेतर कामुक भावनाओं से हिन्दी काव्य का पिंड छूटा, पर खड़ी बोली अपने मनोभावों के उद्गार भाषा की असम्पन्नता के कारण पूर्ण रूप से व्यक्त करने में सर्वथा जीवनविहीन दीखती थी।