पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
हरिऔध--]
[-रस-साहित्य-समीक्षाएँ
३५

साहित्य के विकास के सम्बन्ध में निवेदन करना अप्रासंगिक न होगा। अभी तक प्रकाशित तत् सम्बन्धी ग्रन्थों में आकार की दृष्टि से ही उनका यह ग्रन्थ बड़ा नहीं है, अपितु इसकी ऐतिहासिक महत्ता भी है। वह यह कि हरिऔध जी स्वयं रससिद्ध कवि थे। उन्होंने सहानुभूतिपूर्वक विभिन्न मान्यताओं पर तथा साहित्यकारों पर विचार कर अपना मन्तव्य स्थिर किया है। छायावाद जैसे नवीनतम तथ्य का समर्थन भी हरिऔध जी ने एक सीमा तक किया है। दूसरी बहुत बड़ी बात इस इतिहास में यह है कि उन्होंने आर्यों का आदि देश भारतवर्ष को ही माना है और उसे सिद्ध करने का भी एक सीमातक सफल प्रयत्न किया है। तीसरी बात इसके सम्बन्ध में यह है कि वर्तमान और पूर्ववर्ती कवियों को कवि ने जिस दृष्टि से देखा है उस दृष्टि की मान्यता स्वयं में अपना ऐतिहासिक महत्व रखती है।

भूमिकाओं में भी हरिऔध जी ने रस कलस के सम्बन्ध में अत्यन्त विस्तृत भूमिका लिखी है। यद्यपि रस कलस की भूमिका लिखने में उन्होंने साहित्य दर्पण, रस गंगाधर आदि से पर्याप्त सहायता ली है, तो भी उनकी कुछ मान्यताएँ अपनी नयी हैं, तथा उन्होंने उन लोगों को बड़ा सजीव उत्तर दिया है जो श्रृंगार को अश्लील घोषित करते हैं, यद्यपि ब्रजभाषा में तत्कालीन कवि देश, जाति, मातृभूमि की उपेक्षा कर प्राचीन परिपाटी पर ये रचनाएँ कर रहे थे! उनको उन्होंने इस रचना को उदघोषित किया है। इस सम्बन्ध में स्वयं उन्होंने लिखा है, "आज तक जितने 'रस ग्रंथ' बने हैं उनमें श्रृंगार रस का ही अपना विस्तार है, और अन्य रसों का वर्णन नाम मात्र है। इसके अतिरिक्त संचारी भावों के उदाहरण भी प्रायः श्रृंगार रस के ही दिये गये हैं, ऐसा न करके अन्य विषयों का उदाहरण भी उसमें होना चाहिये था। 'रसकलस' में इन सब बातों