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पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/४०

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साहित्य ]
[ 'हरिऔध
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है, वह कल्पना जो कामद कल्पलतिका बन सुधाफल फलाती है, वह रचना जो रुचिर-रुचि-सहचरी है, वह ध्वनि जो स्वर्गीय ध्वनि से देश को ध्वनित बनाती है, वह सजीवता जो निर्जीवता-संजीवनी है, वह साधना जो समस्त सिद्धि का साधन है, वह चातुरी जो चतुर्वर्ग-जननी है, वह चारु चरितावली जो जाति-चेतना और चेतावनी की परिचालिका है--जब हमारे साहित्य का सर्वस्व थी, उस समय हमारे पवित्र वेदों का आविर्भाव हुआ था। हमने अनुपम उपनिषदों की रचना की, दर्शनों के दर्शन कराये, सूत्रों को रचकर समाज को एक सूत्र में बाँधा, आदर्शचरित के आदर्श रमणीय वाल्मीकीय रामायण को बनाया और अशेष ज्ञान-भाण्डार महाभारत जैसे महान् ग्रन्थ को निर्मित कर भारत का मुख उज्ज्वल किया।

हमारे त्रिदेवों में त्रिलोकपति की सृजन-पालन-संहार-सम्बन्धिनी त्रिशक्ति का अद्भुत विकास है। ब्रह्मदेव चतुर्मुख अथवा चतुर्वेद रचयिता, ललाट-फलक-लिपि-विधाता और समस्त विधि-विधान-सर्वस्व हैं। उनकी शक्ति वीणा-झंकार जीवनामत जीवन-संचारिणी और उनकी वाग्देवी विविध विद्या-स्वरूपा हैं। भगवान् विभु चतुर्भुज हैं--चार हाथों से समस्त लोक का लालन-पालन करते हैं। वे क्षीर-निधि-निकेतन हैं, इसीलिये स्तनपायी जीवमात्र को प्रतिदिन क्षीर-पान कराते रहते हैं। वे विश्वम्भर हैं, इसीलिये उनकी विश्वम्भरी शक्ति आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त का प्रतिपल पालन-पोषण करती है। भगवान् भूतनाथ की मूर्ति बड़ी भावमयी है। वह बतलाती है, संसार-हित के लिए, अवसर आने पर गरलपान कर लो, परन्तु जो कुसुम-सायक बनकर मर्मवेधी वाण प्रहार करता है, उसका संहार अवश्य करो; लोक-लाभ के निमित्त आकाश-निपतित कठोर जलपात शिर पर वहन करो, पर उरगों की उरगता-निवारण करने से मत चूको। शक्ति कितनी ही प्रचण्ड हो तो क्या, उसको दश भुजाएँ क्यों न हों; परन्तु अपने साधन-बल से उसे भी अंगभुक्त किये बिना मत छोड़ो। हमारा साहित्य जब इन मर्म की बातों को मर्मभरी भाषा में बत