पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/६

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के समान बहुमूल्य समझकर उनका प्रिय बालक उन्हें अपने हृदय के किसी निगूढ़ स्थल में एकत्र करेगा और किसी दिन उन्हीं के द्वारा सजल नयन यशोदा और राधा का चित्र अंकित कर सहृदय संसार को चकित मुग्ध और विह्वल कर देगा।

काशी से लौटने के पश्चात् १७ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह अनन्त कुमारी देवी से हुआ, जिनका ४० वर्ष की अवस्था में १९०५ ई० के लगभग देहावसान हुआ। श्री हरिऔध जी ने फिर विवाह नहीं किया और उस सजल प्रेम का आभास 'प्रिय प्रवास' में दिया।

१६ जून १८८४ ई० को आप निजामाबाद के हिन्दी मिडिल स्कूल में अध्यापक हुए। इस पद पर १० जुलाई १८९० ई० तक रहे। सन् १८८७ ई० में इन्होंने नार्मल भी प्रथम श्रेणी में पास किया था। सन् १८९० ई० में इन्होंने कानूनगो की परीक्षा पास की और उसी वर्ष कानूनगो हो गए। चार वर्षोंतक कानूनगो रहने के अनन्तर गिरदावर कानूनगो हुए। सन् १९१८ ई० में सदर कानूनगो हुए तथा आजमगढ़ ही में रहने लगे। पैंतीस वर्ष सरकारी नौकरी में रहने के पश्चात् १ नवम्बर १९२३ में कार्यमुक्त हुए। फिर हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के अवैतनिक अध्यापक हए। जहाँ १९३९ ई० तक कार्य करते रहे।

श्री हरिऔध जी ने अपने विद्यार्थी जीवन से ही काव्य-रचना प्रारम्भ कर दी थी। जब वे मिडिल में पढ़ते थे, तभी कबीर के ३३ दोहों पर ७५ कुंडलियाँ जोड़ी थीं।

श्री ब्रह्मासिंह जी के अतिरिक्त वहाँ के प्रतिष्ठित सिख कवि बाबा सुमेर सिंह साहबजादे का भी श्री हरिऔध जी के निर्माण में बड़ा हाथ था। जिस साल इन्होंने मिडिल पास किया, उसी साल यह बाबा जी के विशेष सम्पर्क में आये। बाबा जी भारतेन्दु मण्डल