पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/७२

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हिन्दी भाषा का विकास ] ७३ . [ 'हरिऔध' है । 'प्राकृत-लक्षण' के टीकाकार षड्भाषा मानते हैं । वे उपयुक्त चार नामों में संस्कृत और शौरसेनी का नाम बढ़ाते हैं । वररुचि महाराष्ट्री, पैशाची, मागधी और शौरसेनी चार और हेमचन्द्र मूल प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश छः प्राकृत बतलाते हैं। हमारी हिन्दी-भाषा का सम्बन्ध शौरसेनी और अपभ्रंश से है। इन प्राकृतों के विषय में अध्यापक लासेन की सम्मति देखने योग्य है। वे कहते हैं- "वररुचि वर्णित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची, इन चार प्रकार के प्राकृतों में शौरसेनी और मागधी ही वास्तव में स्थानीय भाषाएँ हैं । इन दोनों में शौरसेनी एक समय में पश्चिमाञ्चल के विस्तृत प्रदेश की बोलचाल की भाषा थी। मागधी अशोक की शिला-लिपि में व्यवहृत हुई है और पूर्व भारत में यही भाषा किसी समय प्रचलित थी। महाराष्ट्री नाम होने पर भी यह महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा नहीं कही जा सकती। पैशाची नाम भी कल्पित मालूम होता है।" (विश्व-कोष, पृष्ठ ४३८) प्रायः कहा जाता है कि पुस्तक की अथवा लिखित भाषा में और बोलचाल की भाषा में अन्तर होता है । यह बोलचाल की भाषा सहित्य में विकृत हो जाती है, यह बात स्वीकार की जा सकती है; पर सर्वथा सत्य नहीं है । हृदय का वास्तविक उद्गार यदि हम चाहें तो अपनी बोलचाल की भाषा में भी प्रकट कर सकते हैं, वरन् पुस्तक की अथवा लिखने की भाषा से इस प्रकार की रचना कहीं अधिक हृदयग्राहिणी, मनोहर और भावमयी हो सकती है। यह दूसरी बात है कि प्रान्तिक भाषा में होने के कारण उसके समझनेवालों की संख्या परिमित हो। हमारे हिन्दी-संसार में कुछ ऐसे सहृदय कवि भी हो गये हैं जिन्होंने बोलचाल की भाषा में कविता लिखकर कमाल कर दिया है। इन सहृदयों में सबसे पहिले मेरी दृष्टि 'घाघ' पर पड़ती है। उनकी समस्त रचना वोलचाल की भाषा में