हिन्द भाषा का विकास ] ७६ [ 'हरिऔध' इसका संस्कृत-रूप देखिये- रसिकानां केनोच्चाटनं क्रियते, युवत्याः मानसं केनोविज्यते। तृषितो लोक. क्षणं केन सुखी क्रियते, एतदयं मम ( प्रश्नः) भुवने गीयते। वैयाकरण हेमचन्द्र ने अपभ्रंश का यह उदाहण दिया है- वाह विछोड़वि जाहि तुहुंहउते वई को दोसु । हिय पट्टिय जद नीसरहिं जाणउं मुंज सरोसु । अब हिन्दी भाषा के आदि कवि चन्द की रचनात्रों से इन अपभ्रंश भाषा की कविताओं को मिलाइये, देखिये कितना साम्य है। ताली खुल्लिय ब्रह्म दिक्खि इक असुर अदभ्भुत । दिय देह चख सीस मुष करुना जस जप्पत । कवी कित्त कित्ती उकत्तो. सुदिष्षो। तिनको उचिष्टो कवी चन्द भष्षी। अपभ्रंश भाषा की कविता से चन्द की कविता कितनी मिलती है, दोनों में कितना साम्य है। परिवर्तन होते-होते अपभ्रंश भाषा की कविता संस्कृत से कितनी दूर हो गयी और वर्तमान हिन्दी के कितनी निकट आ गयी, यह भी प्रकट हो गया। कविवर चन्द तेरहवें शतक के आदि में हुए हैं। कहा जाता है कि ग्यारहवें शतक के अन्त तक अपभ्रंश का प्रचार था, इसके उपरान्त वह हिंदी के रंग में ढलने लगी। कवि चन्द हिन्दी भाषा के चासर हैं। उनके पहले भी कुछ कवि हो गये है, जिनमें खुमान, कुतुब अली, साई दानचारण, फ़ज़अकरम और पुष्प कवि का नाम विशेष उल्लेख योग्य है; परन्तु हिन्दी भाषा के आदिम प्रौढ़ कवि चन्द बरदाई ही हैं। इनके पहले के कवियों को न तो कोई काव्य कहलाने योग्य उत्तम ग्रंथ मिलते हैं और न उनकी भाषा ही टकसाली
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