पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/८०

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हिन्दी भाषा का विकास] ८१ [ 'हरिऔध' नहीं । रासो बड़ा सुन्दर काव्य है और साहित्य की सम्पूर्ण कलात्रों से अलंकृत है। 'कविवर चन्द बरदाई के बाद चौदहवें शतक के मध्य काल में हमारे सामने दो भाषायों के दो महान् विद्वान् आते हैं- एक संस्कृत विद्या का विदग्ध और दूसरा अरबी-फारसी का आलिम । दोनों ही भगवती वीणा- पाणि के वरद पुत्र, सरस हृदय और कविता देवी के भावुक भक्त हैं। उन्होंने हिन्दी के मनोरम उद्यान में बड़े सुन्दर सुमन खिलाये हैं। एकने पूर्वी हिन्दी की उज्ज्वल और परम ललित रचना की नींव डाली है और दूसरे ने खड़ी बोली की मनोहर कविता का आदि रूप सामने उपस्थित किया है। एक मैथिल-कोकिल है और दूसरा बुलबुल हजार दास्तान । एक का नाम है विद्यापति ठाकुर और दूसरे का अमीर खुसरो । यदि कोमल-कान्त- पदावली के जनक संस्कृत में जयदेव हैं, तो हिन्दी भाषा में कलित-ललित मधुर रचना के पिता विद्यापति । वे हृत्तन्त्री को निनादित कर कहते हैं- ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे। मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुञ्जकुटीरे । तो ये मानस-मृदंग को मुखरित कर यों मधुर बालाप करते हैं- नन्दक नन्दन कदम्बेर तरु तरे घिरे घिरे मुरलि बजाव । समय सँकेत निकेतन बइसल वेरि-वेरि बोलि पठाव । जमुना क तिर उपवन उद्वेगल फिर-फिर ततहिनिहारि। गोरस बिकइ अवइते जाइत जनि जनि पुछ बनमारि । इस सुधा-नावी सजन के इस वाक्य पर 'माह भादर भरा बादर सून्य मन्दिर मोर' बंगाल का सहृदय-समूह विमुग्ध हो जाता है; किन्तु उनके इस प्रकार के सहस्रों ललित पद उनके ग्रन्थ में मौजूद हैं। अब हमारे बुलबुल हज़ार दास्तान की नग़मा सराई सुनिये।