हिन्दी भाषा का विकास ] ८३ [ 'हरिऔध' होगा, यही बात चन्द बरदाई के लिए भी कही जा सकती है। मैथिल- कोकिल की भाषा तो इतनी प्यारी और सुन्दर है, उनका कल-कूजन इतना आकर्षक है कि बंगाल, बिहार और युक्त प्रांत, तीनों उनको अपनी-अपनी भाषा का महाकवि मानकर अपने को गौरवित समझते हैं । इन लोगों के बाद हिन्दी-संसार के सामने सन्त कबीर अाते हैं । हाथों में ज्ञान का दीपक था, जो खूब दमक रहा था । आपकी हिन्दी- रचनाएँ बहुमूल्य हैं, और उसी दीपक-ज्योति से ज्योतिर्मयी हैं । आपने संतमत और संतवानी की नींव डाली। आपकी दृष्टि बड़ी प्रखर थी। आपकी समस्त रचनात्रों में उसकी प्रखरता विद्यमान है। आपकी रचनाएँ हिन्दी-साहित्य का गौरव हैं, उनमें वह आदर्श मौजूद है-जिस आदर्श ने अनेक सन्तजनों के हृदय को प्रेम-रस से अआप्लावित कर दिया। महात्मा कबीर ने अपनी रचनाओं से हिन्दी भाषा को तो मालामाल बना ही दिया है, परन्तु उनके आदर्श ने एक विशद साहित्य उत्पन्न कर दिया है। हिन्दी-साहित्य के विकास में इन रचनात्रों से बड़ी सहायता मिली है। कबीर साहब की रचनाओं का भाण्डार बहुत बड़ा है। उसमें सब प्रकार की कविताएँ पायी जाती हैं, जो विभिन्न समयों में रची गयी बतलायी जाती हैं। उनकी रचना-प्रणाली में भी अन्तर है। मेरा विचार है कि कबीर साहब की रचना का मुख्य स्वरूप उनके बीजक में पाया जाता है। दोनों प्रकार की रचनाएँ नीचे उद्धृत की जाती हैं:- कहहु हो अम्बर कासों लागा, चेतन हारा चेत सुभागा। अम्बर मध्ये दीसै तारा, एक चेता एक चेतवनहारा । जो खोजो से उहवाँ नाहीं, सो तो आहि अमर पद माहीं । कह कबीर पद बूझै सोई, मुख हृदया जाकै एक होई ।
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