पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/८९

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हिन्दी भाषा का विकास ] । भाषा का विकास ] ६० [ 'हरिऔध' बलिहारी गरु आपणेदेव हाड़ी सद वार । जिन माणस ते देवते करत न लागी वार ॥ जे सौ चंदा ऊगवे सूरज चढ़े हजार। एते चानण हो दियाँ गुर विण घोर अँधार ॥ सेत धरे सारी वृखभानु की कुमारो जस ही की मनोवारो ऐसी रची है न को दई। रंभा उरवसी और सची सी मदोदरी पै ऐसी प्रभा का की जग बीच ना कळू भई ॥ मोतिन के हार गरे डार रुचि सो सिंगार कान्ह जू पै चली कवि श्याम रस के लई। सेज साज साज चली साँवरे के प्रीति काज चाँदनी में राधा मानों चाँदनी सी हो गई।