पृष्ठ:रस साहित्य और समीक्षायें.djvu/९३

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ब्रजभाषा और खड़ी बोली ] ६४ [ 'हरिऔध' सहारे कभी-कभी अग्रसर होता रहा, उन्नीसवें शतक में पचास वर्ष के भीतर वही विस्तृत होकर भारत-व्यापी हुा । जो महात्मा गोरखनाथ की विभूति से भी विभूतिमय नहीं हुआ, गोस्वामी विट्ठलनाथ की स्वामिता में भी साहित्य-स्वामी नहीं बना, भक्त नाभादास जिसे अाभा नहीं दे सके, जिसे बनारसीदास सरस, जटमल सजीव, देव दिव्य, सूरतमिश्र स्वरूपमान, दास प्रसादयुक्त, ललित किशोरी ललित और ललितमाधुरी मधुर नहीं बना सके, वही हिंदी गद्य इस काल में समुन्नत होकर सर्वगुण-सम्पन्न हो गया । भारतेन्दु और तात्कालिक हिन्दी-साहित्य गगनशोभी कतिपय ज्योति-निकेतन विद्वद्वन्द तारकपुंज ने उस समय उसको जो अपूर्व आलोक प्रदान किया, उससे वह आज तक आलोकित है और दिन-दिन समधिक आलोकमय हो रहा है। ____समय-प्रवाह से जब हिन्दी-गद्य समुन्नत हुश्रा और योग्य विद्वत्समाज द्वारा उसको समुचित आश्रय मिला तो जनता में उसका अनुराग उत्पन्न होना स्वाभाविक था । जैसे-जैसे हिन्दी में सुन्दर-सुन्दर भावमय ग्रंथ निकलने लगे वैसे-वैसे उसका समादर बढ़ता गया। यंत्रालयों और साम- यिक पत्र-पत्रिकाओं की वृद्धि ने इस प्रवृत्ति की और वृद्धि की । इस समय युक्तप्रान्त, बिहार और मध्यप्रदेश में तो वह प्रचलित था ही, पंजाब प्रांत में और बंगाल के प्रधान स्थान कलकत्ते और बम्बई-हाते की राजधानी बम्बई में भी उसका प्रचुर प्रसार होगया था। इस बहु-विस्तृत हिन्दी-गद्य की भाषा खड़ी बोली थी । श्रीयुत गोस्वामी बिट्ठलनाथ के 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' की रचना ब्रजभाषा में हुई है। पहले की जितनी टीकाएँ और फुटकल नोट कहीं पाये जाते हैं, उन सब की भाषा लगभग ब्रजभाषा ही थी। श्रीयुत लल्लूलाल की भाषा में ही ब्रजभाषा का पुट मौजूद है। किंतु राजा लक्ष्मण सिंह, राजा शिवप्रसाद और बाबू हरिश्चंद्र ने अपने गद्य में शुद्ध खड़ी बोली को स्थान दिया है । परवर्ती समस्त-हिन्दी गद्य-लेखक भी इसी पथ के पथिक हैं । कारण इसका यह है कि जिस काल का यह वृत्तांत